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Appearance Day of Srila BV Vamana Gosvami Maharaja

26:07
#1599
Lecture
Hindi
Srila Gurudeva 100%
Good

Topics

  • What is mahotsava? For vaisnavas, it's listening to Hari Katha.
  • Glories of associates of Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura Prabhupada.
  • Srila Gurudeva's relation with Srila BV Vamana Gosvami Maharaja.
  • Qualities of Srila BV Vamana Maharaja: his sharp memory, humility, lack of desire for appreciation, guru-nistha, sadhu-seva, the never-ending capability of speaking harikatha, and speciality of politely refuting wrong conceptions, to name a few.
  • What is vyasa-puja; ideal vyasa-puja of Srila Bhakti Dayita Madhava Gosvami Maharaja.
  • Explanation of the verse 'acarya-mam-vijaniyet'.
  • Guru-tattva in Gaudiya sampradaya; who can be addressed as 'Rupanuga'; the service of Sri Rupa manjari; specialty of Srila Rupa Gosvami.
  • Glories of Srila Bhaktivinoda Thakura and Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakura Prabhupada.

Transcript

श्रील भक्तिवेदान्‍त वामन गोस्वामी महाराज की आविर्भाव तिथि

[श्रील भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराज ने 6 जनवरी, 1994 को श्रील भक्तिवेदान्‍त वामन गोस्वामी महाराज की आविर्भाव तिथि के दिन यह हरिकथा कही थी।
नोट: इस प्रतिलेखन में निम्‍नलिखित सम्पादकीय योगदान हैं: कुछ स्थानों पर भाषा को थोड़ा सम्‍पादित किया गया है, समाप्ति-नोट्स (endnotes) जोड़े गये हैं और विषय-वस्तु के प्रवाह और बोधगम्यता को सुविधाजनक बनाने के लिये वर्गाकार कोष्ठकों (square brackets) में अतिरिक्त पाठ सम्मिलित किया गया है। इसका शाब्दिक प्रतिलेखन शीघ्र ही उपलब्ध होगा।

यदि आप प्रतिलेखन सेवा में भाग लेने के लिये प्रेरित हैं, तो कृपया https://www.audioseva.com/register पर पञ्‍जीकरण करें।]

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: मैं सबसे पहले श्रील गुरुपादपद्म परमाराध्यतम नित्यलीलाप्रविष्ट ॐ विष्णुपाद श्रीश्रीमद्भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराजजी के चरणकमलों में आत्मनिवेदन करता हूँ। तत्पश्चात् आज जिनका शुभ आविर्भाव है, उन गुरुप्रेष्ठ श्रीश्रीमद्भक्तिवेदान्‍त वामन महाराजजी के चरणकमलों में मेरा साष्टाङ्ग प्रणाम है। उसके पश्चात् त्रिदण्डिपादगण, वैष्णवगण, वैष्णवीगण सबको यथायोग्य अभिवादन।

आज अभी तक व्यास-पूजा महोत्सव चल रहा था। महोत्सव किसको कहते हैं? आनन्‍द को महोत्सव कहते हैं। साधारण मनुष्य खाने-पीने, अच्छी-अच्छी चीजों को देने और उनको ग्रहण करने को ही उत्सव मानता है, किन्‍तु गौड़ीय वैष्णव हरिकथा का ही उत्सव करते हैं।

आज बहुत विलम्‍ब हो गया है। सवा एक बज गए हैं। आप लोग 10:00 बजे से लेकर अभी तक, 3 घण्‍टे से हरिकथा श्रवण कर रहे हैं। मैं बहुत ही सौभाग्यवान हूँ कि आज मुझे गुरु-तत्त्व और श्रीगुरु के उपदेशों के सम्‍बन्‍ध में सुन्‍दर-सुन्‍दर कथाएँ श्रवण करने का सुयोग मिला। साथ-साथ में आप लोगों को भी [हरिकथा श्रवण करने का सुयोग मिला।] विशेषकर बड़े आनन्‍द की बात है कि प्रभुपाद की धारा के सारस्वत-गौड़ीय-वैष्णव हम सब लोग यहाँ पर एकत्रित हुए हैं और विशेष रूप में सभी आए हैं। अब तो प्राचीनों में एरण्ड ही रह गए हैं। एरण्ड एक पेड़ होता है। बड़े-बड़े वृक्षों में अब एरण्ड रह गए हैं।

हम लोगों ने देखा कि श्रील प्रभुपादजी के बाद में पूज्यपाद भक्तिविलास गभस्तिनेमी महाराज, पूज्यपाद भक्तिहृदय वन महाराज, पूज्यपाद भक्तिरक्षक श्रीधर महाराज, पूज्यपाद भक्तिविलास तीर्थ महाराज, हम लोगों के गुरुपादपद्म नित्यलीलाप्रविष्ट ॐ विष्णुपाद श्रीश्रीमद्भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज, नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद श्रीमद्भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज, पूज्यपाद भक्तिभूदेव श्रौती महाराज, पूज्यपाद भक्तिविचार यायावर महाराज, पूज्यपाद भक्तिसारङ्ग गोस्वामी महाराज, ऐसे-ऐसे विश्व विख्यात धुरन्‍धर विद्वान, उन्‍हें धर्म-राज्य के मार्तण्ड (सूर्य स्वरूप) कहिए। कैसे-कैसे ये सब लोग थे! वे लोग जब एक स्थान पर एकत्रित होते थे, तो हम लोग एक कोने में बैठे रहते थे। आज ये सब विभूतियाँ न जाने कहाँ चली गईं! आज हम लोग प्राचीन वैष्णव कहलाने लगे हैं। जब उनकी ओर में देखते हैं, तो कहाँ उनकी योग्यता, कहाँ उनके गुण, कहाँ उनकी गुरु-निष्ठा, कहाँ विश्व में सर्वत्र उनका दिव्य प्रचार! अभी श्रील भक्तिवेदान्‍त स्वामी महाराज का नाम भी छूट गया, उन्‍होंने विश्वभर में कहाँ-कहाँ तक, कैसे-कैसे प्रचार कर दिया! उनकी ओर देखता हूँ और अपनी ओर, हम लोगों की ओर देखता हूँ तो निराशा होती है। ‘प्राचीनानां भजनमतुलं दुष्करं शृण्‍वतो मे’ [#1] [अर्थात् प्राचीन महात्माओं के अत्यन्‍त कठिन भजन-साधन की बात सुनकर निराशा से मेरा भक्तिशून्य हृदय अनुतप्त हो रहा है।] कहाँ वे लोग इतने योग्य और कहाँ हम! तब भी आशा है, जैसे भी हैं। अभी आप लोगों ने पूज्यपाद श्रीश्रीभक्तिप्रसाद पुरी महाराजजी और इन लोगों की हरिकथा सुनी। एक आशा की यही बात है कि ‘ब्रह्माण्‍ड तारिते शक्ति धरे जने जने’ [अर्थात् महाप्रभु के एक-एक भक्त एक-एक ब्रह्माण्ड का उद्धार करने में समर्थ हैं।] यह बात ठीक है, देखें कैसी ओजस्वी वक्तृताएँ दी इन्होंने।

समय हो गया है, सवा एक बज गया है। [अभी हरिकथा कहने से] बहुत विलम्‍ब हो जाएगा। मैं भी दो-एक पुष्पाञ्‍जलि देना चाहता था, किन्‍तु मेरे पुष्प पुष्पाञ्‍जलि के योग्य नहीं हैं। तब भी मैं बस दो-तीन मिनट में ही दो-एक बातें कहना चाहता हूँ। शाम को 4:00 बजे के बाद में फिर से धर्मसभा होगी। मैं विशेष रूप से पूज्यपाद श्री श्रीमद्भक्तिवेदान्‍त वामन महाराज इत्यादि के सम्‍बन्‍ध में, उनके चरित्र के सम्‍बन्‍ध में, उनकी गुरु-निष्ठा के सम्बन्‍ध में और उनके गुणों के सम्बन्‍ध में कुछ व्यक्त करने की चेष्टा करूँगा, क्योंकि मैं लगभग 45 वर्ष से उनलोगों के चरण की छत्रछाया में हूँ।

मैं जब सबसे पहले [गृह त्यागकर मठवासी बनने हेतु नवद्वीप में] आया, तो वे ही मुझे स्टेशन पर [लेने आए थे और मुझे ढूँढते हुए कह रहे थे] “तिवारीजी कहाँ हैं?” वह ‘तिवारीजी’ नहीं कहकर कहते “तेयारीजी कहाँ हैं?” वे मुझे ढूँढकर आश्रम (देवानन्‍द गौड़ीय मठ, नवद्वीप) में ले आए। मुझे मठ में जो कुछ लेना-देना होता था, [इनसे ही होता था क्योंकि] यही भण्‍डारी थे। उस समय मठ में केवल गुरु महाराज, ये और पूज्यपाद त्रिविक्रम महाराजजी थे, और कोई थे ही नहीं।

पूज्यपाद वामन महाराज केवल 8 या 9 वर्ष की उम्र में [मठ में आ गए थे।] इनकी मैया श्रील प्रभुपादजी की शिष्या थी और वह गुरुजी के चरणों में इनको दे गई और तभी से ये मठ में हैं। गुरुजी ने इनको लिखाया-पढ़ाया। गुरुजी ने इनको भक्तिविनोद इंस्टीट्यूट में भर्ती करा दिया और गुरुजी कैसे पढ़ाते थे? यदि कोई एक श्लोक याद करेगा तो एक लेमन-चूस (बच्चों के खाने के लिए चूसने वाली टॉफी जिनमें नींबू का सत आदि पड़ा रहता है) देंगे। एक-एक श्लोक के लिए एक-एक लेमन-चूस। तो ये एक दिन में 5-6, 8-10 श्लोक स्मरण कर लेते। ये बड़े श्रुतिधर हैं और बड़े-बड़े श्लोक भी एक बार यदि सुन लेंगे तो इन्‍हें दूसरी बार सुनने की आवश्यकता नहीं है। हम लोग रटते-पढ़ते, घिसते-पिटते सारे दिन में मुश्किल से एक या आधा श्लोक स्मरण करेंगे और उसमें भी हम लोग आधे में आधा भूल जाएँगे और उनकी [कैसी स्मरण शक्ति है !]

इसमें कोई अभिमान की तो बात नहीं, मैं देखता हूँ कि वे सचमुच में इस समय हमारे गौड़ीय वैष्णव के शब्दकोश हैं। शब्दकोश अर्थात् श्लोक इत्यादि [स्मरण के साथ-साथ उनका] कहाँ, क्या क्या reference (उद्धृति) हैं, इतना उनको स्मरण है। मैं नहीं जानता हूँ कि और किसी को इतना स्मरण है कि नहीं, क्योंकि मैं और सब वैष्णवों के सम्‍पर्क में नहीं गया, किन्‍तु इनके सम्‍पर्क में हूँ। बहुत याद (स्मरणशक्ति)! इनको सारे श्लोक स्मरण हैं। गीता के श्लोक एकदम ऐसे कहेंगे कि आरम्भ से लेकर शेष तक, बीच में ठहरने की कोई आवश्यकता नहीं है। भागवत के श्लोक भी ऐसे ही कहेंगे। वेदान्‍त-सूत्र तक ऐसे ही - ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’, ‘जन्माद्यस्य यतः’, ‘शास्त्रयोनित्वात्’ [#2] इत्यादि से लेकर एकदम अन्‍त तक पहुँच जाएँगे।

उनके क्या गुण हैं? [उनके अनन्‍त गुणों में से] मैंने उनमें एक [विशेष] गुण को लक्ष्य किया। हम लोग थोड़ा-सा कुछ करते हैं न, तो उससे भी बढ़ करके कुछ कहते हैं, किसी न किसी रूप में अपनी प्रशंसा अवश्य ही कर लेंगे, किन्‍तु इनको आज तक मैंने परोक्ष रूप में, प्रत्यक्ष रूप में, किसी रूप में अपनी प्रशंसा करते हुए नहीं देखा। यह बड़ा भारी गुण है। हम किसी न किसी रूप में अवश्य ही अपनी प्रशंसा कर लेंगे, किन्‍तु इनमें यह नहीं है।

इनकी गुरु-निष्ठा ऐसी है कि जिस समय हमारे गौड़ीय-गगन पर कुछ विपत्तियाँ आईं और सब मठवासी लोग अपने-अपने घरों में लौटने लगे, [प्रचार कार्य] छिन्न-भिन्न होने लग गया, मठ में मामला-मुकद्दमा इत्यादि हो गया, उस समय में ये अपना हरिनाम करते और रसोई बनाकर गुरुजनों के लिए ले जाते और साथ-साथ में वकील के पास भी जाते, इनके पास एक मिनट का भी समय नहीं रहता। हम लोग रहते, तो अपने-अपने घर भाग जाते।

जब यह विद्यालय में पढ़ते थे [तभी से वैष्णवों की सेवा करते थे।] इनका पहले सन्‍तोष नाम था और जब ये मठ में आए तो गुरु महाराज ने इनका नाम ‘सज्जन-सेवक’ रखा। सज्जन-सेवक का काम यह था कि विद्यालय में जाने से पहले वैष्णवों के प्रसाद सेवन के लिए केले का पत्ता इत्यादि काटकर लाना, जब वैष्णव लोग भोजन करने के लिए बैठेंगे तो उनको आसन, पत्ता, नमक, नींबू, पानी इत्यादि देना– यह सब सेवा करना और इसके बाद में प्रसाद जब हो जाएगा तो झाड़ू दे करके सब साफ करना, यह इनका काम था। ऐसी सब सेवा नहीं करने से न [ये सब गुण सम्भव नहीं है], इसलिए देखिये कि कैसे ये अब हैं।

अभी [कोई भक्त] बतला रहे थे कि वे 4:00 बजे [हरिकथा करने के लिए] बैठे और करते-करते 11:00 बज गए, यह अतिशयोक्ति नहीं है, उनकी गाड़ी रुकती नहीं है, राजधानी दिल्ली से छूटती है और रुकने का नाम नहीं लेती। हम लोग अधिक से अधिक आधा घण्‍टा और उससे अधिक यदि जोर करेंगे तो पौना घण्‍टा और नहीं तो अधिक से अधिक एक घण्‍टा और इसमें हार जाएँगे और वे सरल सहज स्वाभाविक भाषा में तत्त्व पर तत्त्व, एकदम बोलते ही चले जाएँगे। बङ्गला भाषा पर तो उनकी इतनी पकड़ (command) है कि बड़े-बड़े सिद्धान्‍तों को सरल सहज भाषा में व्यक्त कर देंगे।

उनका खण्‍डन करने का अपना एक तरीका है। खण्डन ऐसे नहीं करेंगे कि सभी लोग समझ जाएँ, सब लोग नहीं समझ सकते उनका खण्डन। बड़ी ही नम्र (polite) भाषा में, उनके नाड़ी-भूड़ी (कच्चा-चिट्ठा) जितना है सबको निचोड़ करके सब रख देंगे किन्‍तु किसी को समझ में नहीं आएगा। बहुत ही सरल-सीधे रूप में कहते हैं।

वे बहुत ही सरल हैं। वैष्णवों को जो सहिष्णु होना चाहिए, उनमें सहिष्णुता इत्यादि गुण हैं। हमने देखा कि उनके घर से उनकी मैया और उनके भाई [मठ में आते थे।] वे चार भाई थे, सबसे बड़े वे और उनके बाद में उनसे छोटा दिल्ली में बैंक में नौकरी करता था और एक उसके बाद में निमाइ पण्डित और एक था।

भक्त: ध्रुव

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: ध्रुव पहले वाला था, बड़े वाला। वामन महाराज के बाद में ध्रुव, और उसके बाद में एक और निमाइ पण्डित और एक अन्‍तिम। तो वे मठ में आते थे, उन लोगों की स्थिति अच्छी नहीं थी, उनके [गृह त्यागकर मठ में] आने के कारण कुछ गड़बड़ हो गई, किन्‍तु वामन महाराज की उनके प्रति माया-ममता कुछ नहीं थी। साधारण लोग जैसे हैं वैसे ही उनके साथ में [व्यवहार करते थे।] बहुत से लोग ऐसे हो जाते हैं कि अपने परिवार के प्रति झुक जाते हैं, किन्‍तु इनका ऐसा नहीं।

पूर्व इतिहास, भुलिनु सकल, सेवा-सुख पे’ये मने।
[हे प्रभो! आपकी सेवा से मुझे ऐसा अपूर्व सुख प्राप्त हुआ कि मैं अपने समस्त सांसारिक सम्बन्‍धों को भूल गया।] GVP

वे सब समय गुरुजी की सेवा में लगे रहते। अभी भी वैसे ही लगे रहते हैं।

गुरु-तत्त्व किसको कहते हैं इसके सम्‍बन्‍ध में बहुत-सी यादगारें हैं। समय पर कल या और समय बतायेंगे। अभी केवल गुरु-तत्त्व के सम्‍बन्‍ध में यही थोड़ा सा बतलाना चाहता हूँ।

व्यास-पूजा किसको कहते हैं? श्रौती महाराजजी ने भी बतलाया, हमारे गौड़ीय-वैष्णव धारा में व्यासजी के स्थान पर जो है, [उनकी आविर्भाव-तिथि के दिन व्यास-पूजा मनाते हैं।] हम लोगों के सम्‍प्रदाय धारा में [गुरु की आविर्भाव-तिथि पर व्यास-पूजा होती है] किन्‍तु और और लोग आषाढ़ महीने में जो पूर्णिमा होती है उसको गुरु-पूर्णिमा कहते हैं। उस दिन व्यासजी की जन्मतिथि है, उस दिन सभी उनके चरणों में पुष्पाञ्‍जलि देते हैं। यह साधारण नियम है।

हमारे यहाँ जो व्यासजी के स्थान पर बैठ करके सम्पूर्ण विश्वभर में भगवान् की गुण-गाथा का प्रचार करता है, वह आचार्य है। आचार्य अपने जन्मदिन में अपने गुरु की और गुरु-परम्‍परा की जो पूजा करते हैं, उसको कहते हैं व्यास-पूजा। [उस दिन गुरु] शिष्यों से पूजा ग्रहण करेंगे, ऐसा नहीं है। आचार्य या गुरु अपने जन्मदिन पर अपने गुरुदेव की, साथ-साथ में वैष्णवों की, साथ-साथ में गुरु-परम्‍परा की, अपने आराध्य श्रीराधाकृष्ण की, चैतन्य महाप्रभु इत्यादि की जो पूजा करता है, उसको कहते हैं व्यास-पूजा।

नित्यानन्‍द प्रभुजी का भी [व्यास-पूजा मनाना] देखिए। [#3] अभी आप लोगों ने हमारे पूज्यपाद नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद श्रीश्रीमद्भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराजजी को भी देखा होगा, अभी अधिक दिन नहीं हुए। वे अपने जन्मदिन में जितने वैष्णव आते थे, ब्रजवासी आते थे, सबकी पूजा करते थे। वे उन्‍हें तिलक लगाते, माला देते, वस्त्र देते, सब प्रकार से उनकी पूजा करते। यहाँ तक कि वे अपने शिष्यों के समान अर्थात् अपने गुरु-भाइयों के शिष्यों को, हम जैसे निम्न श्रेणी (3rd class) के लोगों को भी माला देते और बड़ा सम्मान करते थे। वे अपनी गुरु-परम्‍परा की पूजा करते, राधाकृष्ण की पूजा करते।

इन सब आचरण की यदि शिक्षा नहीं दी जाएगी, तो आजकल जैसे बहुत से लोग ऐसा ही समझते हैं कि व्यास-पूजा (गुरु-पूजा) अर्थात् क्या? गुरु-पूजा अर्थात् शिष्य लोग हमारी पूजा करें। यह उल्टी पूजा है, यह पूजा नहीं है। हाँ, इसको देखकर शिष्य लोग सीखेंगे और अपने गुरुजी की पूजा करेंगे, अवश्य करनी चाहिए, नहीं तो फिर गड़बड़ हो जाएगा। यह अवश्य करेंगे, किन्‍तु यदि गुरु ही स्वयं आदर्श स्थापित नहीं करेगा, अपने गुरु और गुरुवर्ग की पूजा नहीं करेगा तो शिष्य क्या पूजा करेंगे?

श्रीमद्भागवत में हम लोगों को बतलाया गया है कि अपने गुरु को मेरा ही स्वरूप समझो। ‘आचार्यं मां विजानीयात्’ अर्थात् गुरु को मेरा ही स्वरूप समझो। कौन हैं ये? कौन कह रहे हैं? कृष्ण कह रहे हैं। हमारे जीव गोस्वामीजी इसकी टीका कर रहे हैं- “ये साधारण जो कर्मी हैं, उन लोगों के लिए ही जब ऐसा है कि अपने गुरु को भगवत्-स्वरूप मानें, तो फिर जो शुद्ध वैष्णव हैं उनके लिए तो बात ही क्या? उनके लिए ‘यस्य प्रसादाद्भगवत्प्रसादोः’, ‘साक्षाद्धरित्वेन समस्तशास्त्रैः’ है।” [#4]

गुरु आश्रय-विग्रह हैं। हमारे मूल आश्रय-विग्रह दो हैं। एक बलदेव प्रभुजी और एक श्रीमती राधिकाजी। दोनों कृष्ण से निकलते हैं, एक ‘ह्लादिनी शक्ति’ के रूप में और एक ‘सन्‍धिनी’ के रूप में। कृष्ण स्वयं चित्त (सम्वित्) [शक्ति के अधिष्ठात्र देवता हैं।] अब दोनों कृष्ण से निकल करके फिर और वहाँ से फिर अब दोनों मिलेंगे। एक बलदेव प्रभुजी से धारा आई और एक श्रीमतीजी से धारा आई। उन्हीं दोनों के आश्रय में जो राधाकृष्ण की सेवा की जाती है और इसकी जो शिक्षा देता है, वही आचार्य है। हमारे प्राणगोविन्‍द ब्रह्मचारीजी ने ये बहुत सुन्‍दर रूप से बतलाया। जो गुरु इसकी शिक्षा नहीं देता वह गुरु, गुरु है ही नहीं।

अन्य सब सम्‍प्रदाय में देखिए, उनसे हमारे ब्रह्म-माध्व-गौड़ीय-वैष्णव सम्‍प्रदाय की एक विशेषता यह है-

निकुञ्जयूनो रतिकेलिसिद्धै, या यालिभिर्युक्तिरपेक्षणीया।
तत्रातिदाक्ष्यादतिवल्लभस्य, वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥
- श्रीगुर्वष्टकम् (6)

[निकुञ्ज बिहारी 'ब्रज-युव-द्वन्द्व' के रतिक्रीड़ा-साधन के निमित्त सखियाँ जिन युक्तियों का अवलम्बन करती हैं, उस विषयमें अतिनिपुण होनेके कारण जो उनके अतिशय प्रिय हैं, उन्हीं श्रीगुरुदेव के पादपद्मों की मैं वन्दना करता हूँ।] GVP

और किसी सम्‍प्रदाय में राधाकृष्ण की इन सब लीलाओं की इतनी सेवा नहीं है। गुरु का गुरुत्व इसी पर निर्भर करता है [कि उसका राधाकृष्ण की मधुर-लीलाओं में कहाँ तक प्रवेश है।], श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने ‘श्रीगुर्वष्टकम्’ के दूसरे श्लोक में बतलाया-

महाप्रभोः कीर्तन-नृत्य-गीत, वादित्रमाद्यन्मनसो रसेन।
रोमाञ्च कम्पाश्रु तरङ्ग भाजो वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥

[सङ्कीर्त्तन, नृत्य, गीत तथा वाद्यादि के द्वारा उन्मत्तचित्त श्रीमन्महाप्रभु के प्रेमरस में जिनके रोमाञ्च, कम्प और अश्रु तरङ्ग उद्गत होते हैं, मैं उन्हीं श्रीगुरुदेव के पादपद्मों की वन्दना करता हूँ।] GVP

ये सब श्लोक देखिए। इनमें गुरुजी क्रमशः उन्नत सेवाओं तक लेकर जाते हैं। श्रीगुरु स्वयं ठाकुरजी का अर्चन-पूजन इत्यादि भी करते हैं और इधर ‘निकुञ्जयूनो रतिकेलिसिद्धै’ इत्यादि [अर्थात् निकुञ्ज में राधाकृष्ण की सेवा] तक चले जाते हैं। यही गुरु का गुरुत्व है। जो इन सबकी शिक्षा नहीं दे सकते, उनको रूपानुग आचार्य तो कहा ही नहीं जा सकता।

रूपानुग किसको कहते हैं? हम लोग सब गुरुवर्ग को रूपानुग कहते हैं। रूपानुग अर्थात् क्या? रूपानुग अर्थात् श्रील रूप गोस्वामी ने श्रीचैतन्य महाप्रभु की प्रेरणा और उनकी कृपा से ‘भक्तिरसामृतसिन्‍धु’, ‘उज्ज्वलनीलमणि:’, ‘ललितमाधव’, ‘विदग्धमाधव’ इत्यादि सब ग्रन्‍थ लिखे। उसको पालन करनेवाला ही रूपानुग नहीं है, नहीं। वह रागानुगा हो सकते हैं, राग के अनुगत हो सकते हैं। उसमें दास्य भी हो सकता है, सख्य भी हो सकता है, वात्सल्य भी हो सकता है, मधुर भी हो सकता है। किन्‍तु रूपानुग कहने से क्या बोध होता है? रूप गोस्वामी भीतर से क्या थे? महाप्रभुजी की लीला में– महाप्रभु के परिकर के रूप में वे रूप गोस्वामी हैं और वही राधाकृष्ण के परिकर के रूप में रूपमञ्जरी (मंजरी) हैं। रूपमञ्जरी की अपनी सेवा क्या है? रूप गोस्वामी की अपनी सेवा है कि वे किस प्रकार से प्राण-सखी (मञ्‍जरी) हो करके, राधापक्षीय होकर के युगल की सेवा करते हैं। [रूपमञ्जरी] युगल की सेवा करती हैं, किन्‍तु युगल-सेवा में भी उनका अभिनिवेश और उनका झुकाव (tendency) किधर में है? वे राधाजी की ओर झुकी हुई हैं।

राधाजी खड़ी हैं और यदि कृष्ण रूपमञ्जरी को बुलाएँगे, अथवा यदि कृष्ण और राधाजी दोनों रूपमञ्जरी को बुला रहे हैं, तो रूपमञ्जरी किधर जाएँगी? कृष्ण की ओर ऐसे (श्रील गुरुदेव निषेध का इङ्गित करते हुए) करेंगी और सीधे राधाजी की तरफ में चली जाएँगी। यह रूपमञ्जरीजी हैं। यदि कृष्ण हार जाएँगे, तो सब सखियों के साथ में सबसे पहले ताली बजानेवाली रूपमञ्जरीजी होंगी और कृष्ण को चिढ़ाती हैं। वे कृष्ण को चिढ़ायेंगी और उनकी सेवा करेंगी। इसलिए रघुनाथदास गोस्वामी ने ‘त्वम् रूप मञ्‍जरि सखि! प्रथिता पुरेऽस्मिन्’ [#5] इत्यादि श्लोक में उनकी वन्‍दना की है।

रूपानुग अर्थात् क्या? जो एकमात्र श्रील रूप गोस्वामी के आचार-विचार और उनकी स्वरूपगत सेवा को भलीभाँति जान करके अपने शिष्यों के हृदय में भी उस सेवा की वासना को प्रदान करते हैं, इसको कहते हैं रूपानुग। हम लोगों का सम्प्रदाय ये है।

पहले-पहले नारदजी आए उन्होंने दास्यरस इत्यादि की सेवा दी, सेवा का प्रचार किया। और-और भी बड़े-बड़े आचार्य लोग आए, स्वयं भगवत्-तत्त्व आए, किन्‍तु चैतन्य महाप्रभुजी ने जिस वस्तु को दिया वे लोग उसके सामने तक, आसपास भी नहीं आए। और चैतन्य महाप्रभु ने उन सब वस्तुओं की श्रील रूप गोस्वामी के हृदय में स्वाभाविक रूप से प्रेरणा कर दी। कहाँ किया? प्रयाग में, और कहाँ किया? जो बाकी रह गया न, ‘प्रियः सोऽयं कृष्णः सहचरी’ [#6] इत्यादि के माध्यम से सब कुछ उनके भीतर में दे दिया। उन वस्तुओं को अपने हृदय में लेकर, और फिर जो इसको शिष्यों के हृदय में दे सकेगा, वह यथार्थ में हमारे रूपानुग-गौड़ीय-वैष्णव-आचार्य है।

[श्रील रूप गोस्वामी ने] श्रीमन्‍महाप्रभु के लिए ‘नमो महावदान्याय’ कहा अर्थात् श्रीमन्‍महाप्रभु महावदान्याय हैं। श्रील प्रभुपादजी ने श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के लिए ‘नमो महावदान्याय’ कहा। किसलिए? महाप्रभु ने जो वस्तु दी, श्रील भक्तिविनोद ठाकुरजी ने उसी वस्तु को नये सोने के थाले में नये रूप में परोसा। इसलिए श्रील भक्तिविनोद ठाकुरजी महा-महावदान्याय हैं और श्रील प्रभुपादजी कैसे हैं? श्रील प्रभुपादजी ने श्रील भक्तिविनोद ठाकुरजी को प्रकाशित कर दिया, साथ-साथ में उन्होंने समस्त गुरु-परम्‍परा, श्रीमन्‍महाप्रभुजी और श्रीराधाकृष्ण को प्रकाशित किया। ऐसे महापुरुष–श्रील प्रभुपाद को जो प्रकाशित करनेवाले हैं, ये लोग धन्य हैं।

आज हम लोगों का इतना सौभाग्य है, अपने सौभाग्य पर हम इठलाते हैं कि ऐसे-ऐसे परिकरों के, प्रभुपाद के गणों के हम लोग निकट में भी आए। अभी दूर में ही सौभाग्य है, किन्‍तु दुर्भाग्य है कि मैं उनकी उन वस्तुओं को नहीं ले सका, इन सब महापुरुष लोगों ने थोड़ासा लिया है। पूज्यपाद वामन महाराजजी उन्‍हीं कड़ी में एक हैं। हम लोगों का सौभाग्य है कि ऐसे-ऐसे महापुरुषों का सङ्ग मिला। यदि हम लोग उनके विचारों को ग्रहण करके भगवद्‍भक्ति राज्य में प्रवेश कर सकें, तो हमारा अहोभाग्य होगा। आज मैं यहीं तक बोल करके अपना वक्तव्य समाप्त करता हूँ, क्योंकि लगभग समय हो गया है। वैष्णवों के चरणों में अपराध न हो जाए, आप वैष्णव लोग हमारे ऊपर में कृपा करेंगे जिससे कि हम लोग [भगवद्‍-भक्ति में प्रवेश कर सकें।]

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समाप्ति-नोट्स (Endnotes)

#1
प्राचीनानां भजनमतुलं दुष्करं शृण्वतो मे
नैराश्येन ज्वलति हृदयं भक्तिलेशालसस्य।
विश्वद्रीचीमघहर तवाकर्ण्य कारुण्यवीची-
माशाबिन्दूक्षितमिदमुपैत्यन्तरे हन्त शैत्यम्॥
-(स्तवमाला, त्रिभङ्गीपञ्चकम्)

हे अघहर! शुक, अम्बरीष आदि प्राचीन महात्माओं के अत्यन्त कठिन भजन-साधन की बात सुनकर निराशा से मेरा भक्तिशून्य हृदय सर्वथा अनुतप्त हो रहा है, क्योंकि मेरे लिए वैसा कठिन भजन-साधन कदापि सम्भव नहीं, अतः आपके श्रीचरणों की प्राप्ति भी सम्भव नहीं है। किन्तु ब्रह्मा आदि से लेकर पामर (जघन्य पापी) तक सर्वत्र फैली हुई आपकी कृपा की लहरियों को देखकर कुछ आशा की किरणों से हृदय पुनः सुशीतल हो रहा है। (GVP)

#2
अथातो ब्रह्मजिज्ञासा।
-वेदान्‍तसूत्रम् (1.1.1)

अब अर्थात् तत्त्वज्ञ व्यक्ति के सङ्ग के उपरान्त (फलस्वरूप) यह जानकर कि काम्य-कर्मों का फल सीमित एवं नश्वर है, ब्रह्म को जानने की इच्छा युक्तियुक्त है। (GVP)

जन्माद्यस्य यतः।
-वेदान्‍तसूत्रम् (1.1.2)

जिनसे इस परिदृश्यमान् जगत्‌ की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय होता है, वे ही ब्रह्म हैं। (GVP)

शास्त्रयोनित्वात्।
-वेदान्‍तसूत्रम् (1.1.3)

वेदादि शास्त्र ब्रह्मस्वरूप को बोध कराने हेतु हैं। (GVP)

#3
श्रीनित्यानन्‍द प्रभु द्वारा व्यास-पूजा करने के सम्बन्‍ध में श्रीचैतन्यभागवत मध्यखण्ड का पञ्चम अध्याय दृष्टव्य है।

#4
यस्य प्रसादाद्भगवत्प्रसादो यस्याप्रसादान् न गतिः कुतोऽपि।
ध्यायन् स्तुवंस्तस्य यशस्त्रिसन्ध्यं वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥
-श्रीगुर्वष्टकम् (8)

एकमात्र जिनकी कृपा द्वारा ही भगवद्-अनुग्रह लाभ होता है, जिनके अप्रसन्न होने से जीवों का कहीं भी निस्तार नहीं है, मैं त्रिसन्ध्या उन्हीं श्रीगुरुदेव की कीर्त्ति समूह का स्तव और ध्यान करते-करते उनके पादपद्मों की वन्दना करता हूँ। (GVP)

साक्षाद्धरित्वेन समस्तशास्त्रै -रुक्तस्तथा भाव्यत एव सद्भिः।
किन्तो प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥
-श्रीगुर्वष्टकम् (7)

निखिल शास्त्रों ने जिनका साक्षात् हरि के अभिन्न-विग्रहरूप से गान किया है एवं साधुजन भी जिनकी उसी प्रकार से चिन्ता किया करते हैं, तथापि जो भगवान् के एकान्तप्रिय हैं, उन्हीं (भगवान्‌ के अचिन्त्य-भेदाभेद-प्रकाश-विग्रह) श्रीगुरुदेव के पादपद्मों की मैं वन्दना करता हूँ। (GVP)

#5
त्वम् रूप मञ्जरि सखि! प्रथिता पुरेऽस्मिन्
पुंसः परस्य वदनं नहि पश्यसीति।
बिम्बाधरे क्षतमनागत-भृर्तकाया
यत्ते व्यधायि किमु तच्छुकपुंगवेन॥
-विलापकुसुमाञ्जलि (1)

हे सखि रूपमञ्‍जरी! आप ब्रज में अपने पति के अतिरिक्त किसी परपुरुष का मुखमण्डल तक न देखने के लिए प्रसिद्ध हैं। इसलिए यह आश्चर्य की बात है कि आपके पति के घर पर न होने पर भी आपके बिम्बफल के समान लाल अधर पर ऐसा चिह्न है कि मानों किसी ने उन्हें काट लिया हो। क्या यह किसी उत्तम शुक ने किया है? (GVP)

#6
श्रीमन्महाप्रभु की श्रील रूप गोस्वामी पर कृपा के सम्बन्‍ध में श्रीचैतन्यचरितामृत अन्‍त्यलीला (1.72-90) देखें।

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