Life and Teachings of Sri Prahlada Maharaja
30:23Topics
- Prahlada Maharaja's previous life as a brahmana
- He accidentally fasted on the day of Nrsimha caturdasi; what benefit did he receive?
- Appearance of Prahlada Maharaja, his pastimes during childhood, instructions to his classmates.
- Story of andha kupam (the blind well).
- We need the mercy of Sri Guru to advance in spiritual life.
- One is accepted as a brahmana by his qualities, not by birth; example of Mata Sabari in this context.
- We are a part and parcel of Krsna; we cannot be happy without doing bhajana; example of Ravana in this context.
- Krsna appears in different incarnations. He is avatari (the original source of all other incarnations)
Transcript
श्रीप्रह्लाद महाराज का जीवन एवं शिक्षाएँ
[श्रील भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराज ने श्रीकेशवजी गौड़ीय मठ, मथुरा [अज्ञात-तिथि] में यह हरिकथा कही थी।
नोट: इस प्रतिलेखन में निम्नलिखित सम्पादकीय योगदान हैं: कुछ स्थानों पर भाषा को थोड़ा सम्पादित किया गया है, समाप्ति-नोट्स (endnotes) जोड़े गये हैं और विषय-वस्तु के प्रवाह और बोधगम्यता को सुविधाजनक बनाने के लिए वर्गाकार कोष्ठकों (square brackets) में अतिरिक्त पाठ सम्मिलित किया गया है। इसका शाब्दिक प्रतिलेखन शीघ्र ही उपलब्ध होगा।
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श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: …इसके बीच में किसी ने संन्यास ले लिया, तो संन्यास का संस्कार होता था। इसका कितना फल है? मैं एक इतिहास के द्वारा, भागवत के द्वारा बतलाने की चेष्टा करूँगा। आप लोग भी आगे से भगवत् पूजन से, भगवान् के नाम कीर्तन के माध्यम से, ठाकुरजी के प्रदीप से, आरती से अपने व्यक्तित्व का संस्कार करेंगे।
एक ब्राह्मण था। उस ब्राह्मण के अच्छे संस्कार थे। पढ़ने-लिखने के बाद में किशोरावस्था में एक योग्य लड़की से उसने शादी की। कुछ दिनों के बाद में उसके कुछ एक-दो बच्चे भी हुए। किन्तु उसके बाद में… वह अपने माता-पिता की सेवा भी करता था, सत्पथ पर चलता था। [उसका] पत्नी के प्रति आदर का भाव था, पत्नी भी वैसी ही थी। कुछ दिनों के बाद में वह कहीं बाज़ार में गया और एक किशोरी के फंदे में पड़ गया, जो वेश्या थी। वह बहुत सुन्दर स्वर से गाती थी। वह सुन्दरी भी थी, लोगों को आकर्षण कर लिया करती थी। तो [उसने] इस [ब्राह्मण] को भी अपने रूप से और अपनी सुन्दर आवाज़ से, संगीत से अपनी ओर आकर्षित कर लिया।
इधर में देखिये…
[उस वेश्या ने उस ब्राह्मण को अपनी ओर] आकर्षित कर लिया। अब वह घर से अपनी अच्छी-अच्छी वस्तुओं को चुराकर इसे दे देता। धीरे-धीरे उसने [अपनी] स्त्री के गहने-आभूषण इत्यादि जो कुछ थे, घर में कुल सम्पत्ति थी, उसको [इस वेश्या को दे] दिया।
जब उस [ब्राह्मण] के पास में कुछ देने को नहीं रहा, तो एक दिन उस वेश्या ने उसको दुत्कार करके घर से बाहर करने की चेष्टा की। उसका ऐसा अपमान हुआ, जैसे हृदय निस्तेज हो गया। वह प्राण त्याग करने के लिए चल पड़ा।
वह उसके घर से निकल करके चल पड़ा। [उसने] कुछ खाया नहीं। एक जंगल मिला। इतने में शाम हो गयी। धीरे-धीरे रात होने लगी। जंगल में सिंह इत्यादि गर्जन करने लगे, हाथी चिंघाड़ मारने लगे। वह प्राण छोड़ने के लिए आया था किन्तु अब डर के मारे प्राण को बचाने के लिए ‘कहाँ जाये?’–कहते हुए एक टूटे-फूटे मन्दिर में उसने शरण ली। उसको रातभर नींद नहीं आयी, रोता-बिलखता रहा।
और वह जो वेश्या थी, उसने देखा कि मैंने इसका सर्वस्व हरण कर लिया और आज घर से निकाल दिया। वह इसको मनाने के लिए पीछे-पीछे चल पड़ी। वह भी वहाँ पर आयी और ऐसे ही शाम हो गयी। वह भी कोई एक रैनबसेरा खोजती हुई उसी मन्दिर के एक कोने में बैठ गयी। उन्होंने परस्पर [एक-दूसरे को नहीं] देखा। आज उसके विरह में इसने भी कुछ नहीं खाया। उपवास किया और रोती रही।
जब सवेरा हुआ, प्रकाश हुआ, [उस वेश्या] ने देखा कि ये [ब्राह्मण] तो यहीं पर बैठा है। उसने भी देखा कि ये तो यहीं है। अब ये वेश्या स्त्री दौड़ करके उसके चरणों में गिर पड़ी। उसकी आँखों से आँसू निकलने लगे। उसने भी इसको पकड़ लिया। (4:08 अस्पष्ट)
बात ये थी कि जिस दिन [उन दोनों का] झगड़ा हुआ, उस दिन नृसिंह-चतुर्दशी का दिन था। उस दिन झगड़े के कारण उनका उपवास हो गया और रातभर जागरण हो गया और वह टूटा-फूटा जो मन्दिर था, वह नृसिंह भगवान् का मन्दिर था। संयोगवशतः (by chance) ही यह सब हुआ, नहीं इच्छा करने पर भी। इसका यह फल हुआ कि वही [ब्राह्मण] दूसरे जन्म में प्रह्लाद महाराज हुए और वह जो वेश्या थी, वह प्रह्लाद महाराजजी की रानी हुई।
[प्रह्लाद महाराज] बचपन से ही कैसे रहे? तत्त्वज्ञान उनके अन्दर में भरा पड़ा था। शुकदेव गोस्वामीजी माता के गर्भ में 12 वर्ष या 16 वर्ष थे और व्यासजी से उन्होंने सारी चीजों को– वेद, उपनिषद्, भागवत इत्यादि का श्रवण किया और वे कैसे हुए? और प्रह्लाद महाराजजी साठ हजार वर्ष अपनी मैया के गर्भ में थे और नारद ऋषि उनको ये सब तत्त्व की बातें सुनाते थे।
भागवत में लिखा है कि जब हिरण्यकशिपु तपस्या करने के लिए गया तो इन्द्र ने उसके राज्य पर आक्रमण किया और सब लोगों को– असुरों को मार-काट करके, उसकी अनुपस्थिति में उसकी पत्नी कयाधु को पकड़ लिया। उस समय वह गर्भवती थीं।
इन्द्र ने सोचा– “हमको हिरण्यकशिपु के बच्चे को मारना है। हमको [उसकी] स्त्री से कोई भी द्वेष नहीं है, किन्तु बच्चा तो उसी का है। जैसे वह धुरन्धर, तेजस्वी और वीर है, ऐसा ही ये भी होगा और जगत् में उत्पात मचायेगा। इसलिये गर्भ से निकलते ही मैं उसे मार डालूँगा।” इसलिये उसको पकड़ करके विमान से ले करके चल पड़े। इतने में नारद ऋषि ऊपर से कहीं वैकुण्ठ से आ रहे थे।
नारद ऋषि ने कहा– “अरे! इस स्त्री जाति को जो विलाप कर रही है, तुम क्यों पकड़ करके ले जा रहे हो? इसको छोड़ दो।”
इन्द्र ने कहा– “नहीं, इसके गर्भ में हिरण्यकशिपु की [सन्तान] है और ये महाउत्पाती, भयंकर दस्यु, दानव होगा, राक्षस होगा। इसलिये इसके निकलते ही इसे काट डालूँगा।”
[नारद ऋषि ने कहा–] “तुम इसे मार नहीं सकते। मैं दिव्यदृष्टि से देख रहा हूँ कि ये परमभागवत होगा। इसलिये इसे छोड़ दो। [तुम इसे] नहीं मार सकते।”
तो नारदजी के कहने से उसने [कयाधु को] छोड़ दिया। नारदजी ने पकड़ लिया और पृथ्वी पर ले आये। अपने आश्रम के पास ही में उसको एक पर्णकुटी दे दिया और कहा कि रहो। वहीं पर रहने लगी। वह नारद ऋषि की कुटी में झाड़ू दे देती, लकड़ी बीन करके दे देती। इस तरह से सेवा करने लगी और उनके मुख से हरिकथा सुनने लगी। नारद ऋषि उसको सुनाने के बहाने…
नारद ऋषि [कयाधु के] बहाने से किसको सुना रहे हैं? भीतर में सुनता कौन है? [भीतर में प्रह्लाद महाराज सुनते हैं।] ये है– गर्भ संस्कार। यदि माँ को [कथा सुनायें, तो गर्भ में] पुत्र का [संस्कार होगा। यदि किसी स्त्री] के पेट में लड़का है या लड़की है, उस समय में वह भागवत की कथाएँ सुने, तत्त्वज्ञान की बातें, भगवान् की बातें सुने, कीर्तन करे, कीर्तन सुने तो अवश्य ही बच्चा वैसा होगा। धर्मात्मा का पुत्र से वह धर्मात्मा [होगा,] ये संस्कार होता है। इसलिये नारदजी जैसे ही प्रह्लाद महाराज [हुए।] इसलिये बचपन से उसको समस्त तत्त्वज्ञान [हो गया।] जब ये पैदा हुआ…
तो [कयाधु के द्वारा उन] सेवाओं को करता [देखकर] नारदजी ने कहा– “तुम कुछ वर माँग लो। तुमने मेरी बहुत सेवा की है।”
उसने कहा– “जब भी मैं चाहूँ तभी मेरे पेट से बच्चा निकले, ऐसे नहीं निकले। मेरे स्वामी आ जायें, तो पेट से बच्चा निकले।”
[नारद ऋषि ने कहा–] “ठीक है– एवमस्तु, ऐसा ही होगा।”
[हिरण्यकशिपु ने] साठ हजार [वर्ष] तपस्या की और उसके बाद में ब्रह्माजी दौड़ करके आये और बोले– “क्या वर चाहता है?”
[हिरण्यकशिपु ने] कहा– “मैं अमर बन जाऊँ।”
[ब्रह्माजी ने कहा–] “अमर छोड़ करके और दूसरा कोई भी वर माँग लो।”
तो उसने अमर [होने] जैसा ही वर माँगा– “ मैं दिन में नहीं मरूँ, रात में नहीं मरूँ। आकाश में नहीं मरूँ, पाताल में नहीं मरूँ। किसी महीने के भीतर में नहीं मरूँ। मैं ऊपर और नीचे नहीं मरूँ। ब्रह्मा ! आपकी बनायी हुई सृष्टि में से [कोई] मनुष्य या कोई पशु (जानवर), साँप या देवता, गन्धर्व, बाघ, भालू इत्यादि मुझको नहीं मार सके।”
अर्थात् किसी-न-किसी प्रकार से उसने माँग लिया कि उसको कोई नहीं मार सके– “मैं दिन में नहीं मरूँ, रात में नहीं मरूँ। आकाश में नहीं मरूँ, घर में नहीं [मरूँ।] मैं अस्त्र से नहीं मरूँ, शस्त्र से नहीं मरूँ।” जब [ब्रह्माजी से वर] माँग करके आया, तो एकदम जगत् में उत्पात करने लग गया। उसी समय इसका ये चौथा बेटा हुआ और उसने उसका नाम प्रह्लाद रखा।
[जब वे] पाँच वर्ष [के हुए तो] विद्यालय (school) में दे दिया। उस समय में शुक्राचार्य नहीं थे। उनके पुत्र थे–षण्ड और अमर्क। ‘षण्ड’ माने सांड होता है। [सांड] बेपरवाह चलता है। रास्ते से नहीं चलेगा। किसी की परवाह नहीं करता। यदि सामने कोई आ गया तो महाक्रोधी भी होता है। [सांड] कामी भी होता है, लोभी भी होता है। तो जो भगवान् का भजन नहीं करते, वे ऐसे ही [होते हैं। उन्हें] भगवान् का तत्त्वज्ञान नहीं [होता।] और एक अमर्क है। ‘मर्क’ माने होता है– प्रकाश। ‘अमर्क’ अर्थात् जहाँ अन्धकार है। अन्धकार [है अर्थात् जहाँ] ज्ञान नहीं है। [प्रह्लाद महाराज] उनके विद्यालय (school) में पढ़ने लग गये। [वहाँ पर उनको] साम, दाम, दण्ड, भेद इत्यादि सब पढ़ाने लग गये।
[हिरण्यकशिपु ने] पाँच वर्ष की उम्र में अपने बेटे को बुलाया और पूछा– “बेटा! अच्छा बतलाओ तो, तुमने गुरुजी के यहाँ क्या सबसे अच्छा समझा? तुमने क्या विद्या सीखी? तुमको कौनसी चीज़ अच्छी लगी?”
तो प्रह्लाद महाराज ने कहा–
तत्साधु मन्येऽसुरवर्य देहिनां सदा समुद्विग्नधियामसद्ग्रहात्।
हित्वात्मपातं गृहमन्धकूपं वनं गतो यद्धरिमाश्रयेत ॥
-श्रीमद्भागवतम् (7.5.5)
[श्रीप्रह्लाद महाराज ने कहा– “हे असुरश्रेष्ठ! मैं यही उत्तम मानता हूँ, कि ‘मैं-मेरा’ रूपी मिथ्या आग्रह के कारण जिनका चित्त उद्विग्न रहता है, वे देहधारी जीव अपने अधःपतन के मूल कारण– अन्धकूप के समान अमङ्गलकारी गृह का त्याग करके वन में जाकर श्रीहरि की शरण ग्रहण करें।] GVP
‘तत्साधु मन्येऽसुरवर्य देहिनां’– हे असुरवर्य! असुरों में श्रेष्ठ! संसार में सबसे बड़ी विद्या यही है, मैंने उसी को अच्छा समझा।
‘हित्वात्मपातं गृहमन्धकूपं वनं गतो यद्धरिमाश्रयेत’– इस संसार को अन्धकार समझो। ‘हित्वात्मपातं’– यदि भोगों में लिप्त हो जायेंगे, तो इसमें आत्मा का विनाश हो जाता है [अर्थात्] आत्मा का पतन हो जाता है। इसलिये बुद्धिमान पुरुषों को सत्सङ्ग में जा करके भगवान् का भजन करना [चाहिये।] ये ही सबसे बड़ी बात है। हमने तो इसी को सीखा। किसी प्रकार से सत्सङ्ग में रह करके एकान्तिक रूप में भगवान् का भजन करना चाहिये। भगवान् कौन हैं? आगे बतलाया कि ये कृष्ण ही स्वयं भगवान् हैं। अभी इसी श्लोक में बतलाया गया– ‘गृहमन्धकूपं वनं गतो यद्धरिमाश्रयेत।’ इस संसार को अन्धकूप की उपमा दी।
एक व्यक्ति था। वह कहीं जा रहा था। बीच में जंगल आया। [उसमें] बड़े-बड़े लम्बे-चौड़े पेड़ थे और उसमें बाघ-भालू रहते थे। जब वह आगे गया तो देखा कि सामने से एक सिंह आ रहा है और गर्जन करके उसके ऊपर में टूट पड़ा। इसने भी भागने की चेष्टा की। पेड़ लम्बे-लम्बे मोटे-मोटे थे, [वह इन पर] चढ़ नहीं सका। अब एक सेकण्ड की देरी होने से उसको बाघ पकड़ करके खा जायेगा। इतने में [उसको] एक कुआँ दिख पड़ा और उस कुएँ में पानी नहीं था। वह खण्डहर हो चुका था। उसमें बड़े-बड़े साँप-बिच्छू रहते थे। उसके ऊपर में कुछ पीपल के पेड़ हो गये थे। इसलिये उसको अन्धकूप कहते हैं, दूर से मालूम नहीं पड़ेगा। बस, एक पीपल [के वृक्ष] की दो डालें थीं, उनको पकड़ करके उसी के अन्दर में [लटक] गया।
जब कूदने की तैयारी कर रहा था, इतने में देखा कि नीचे काले-काले साँप फन उठाये हुए उसको डसने के लिए तैयार हैं। [उसके] प्राण सन्न हो गये, नीचे नहीं जा सकता, ऊपर नहीं जा सकता। अब दोनों डालों को दोनों हाथों से ऐसे पकड़े हुए [लटक गया।] इतने में कहाँ से एक सफेद चूहा, एक काला चूहा निकला। [वह] जिन डालों को पकड़े हुए है, [वे चूहे] उन दोनों डालों को कुतरने लग गये। अब दो-एक सेकण्ड की बात है। यदि [वह व्यक्ति डालों को] पकड़ कर रहता भी है तो भी मरता है। वे [चूहे डालों को] काट देंगे [और] वह गिर जायेगा। और यदि ऊपर जाता है तो भी मरेगा, [क्योंकि] अभी सिंह गर्जन कर रहा है और नीचे जाता है तो साँप उसे काटेंगे, वह अवश्य ही मरेगा। [उसके] चारों ओर मृत्यु है।
[उसने] भयभीत हो करके ऊपर में देखा। एक छोटी सी पतली टहनी में मधुमक्खी का छत्ता लगा हुआ है और उसमें मधु लगी हुई है और उससे सुन्दर-सुन्दर मधु की लाल-लाल बूँदे टपक रही हैं। उसने मुख को बढ़ाया– “मर तो रहा हूँ, थोड़ा चख तो लूँ।” इसलिये जीभ बढ़ायी और उसमें एक बूँद पड़ी– “आहा! क्या मधुर!”
इधर वे दोनों चूहे तो [डालियों को कुतरने का] काम कर रहे हैं। साँप भी [डसने के लिए] तैयार हैं, बाघ भी मारने के लिए तैयार है। अब सोचो कि इस समय में क्या होगा? यदि [डालियों को] पकड़ के रहता है, तब भी मृत्यु [होगी,] नीचे जायेगा। ऊपर में जाने से [भी] मृत्यु। चारों ओर मृत्यु ही मृत्यु है, किन्तु [मधु का] ये एक बूँद जो मिला, ‘क्या मधुर है?’ – यही अन्धकूप है। हम लोगों की दशा ऐसी ही है। ये मधु का बूँद क्या है? ये संसार का सुख। दो दिन के लिए दो बूँद न? दो दिन का [जीवन है,] कोई निश्चित नहीं कि कब ये समाप्त हो जायेगा।
यदि कहीं टहनी हिल गयी, तो क्या होगा? मधुमक्खियाँ उतर के एक साथ में मुख पर ही आक्रमण करती हैं। लाखों मधुमक्खियाँ [आ] जायेंगी, वह उससे भी मरा। आँखे अन्धी कर देंगी, लाखों एक साथ में [काटेंगी, उनके] विष से वह मर जायेगा,। चारों ओर मृत्यु है। बस, भगवान् के अतिरिक्त और कोई सहारा नहीं है। इसलिये ये कहते हैं– “‘हित्वात्मपातं गृहमन्धकूपं’ – ऐसे अन्धकूप को परित्याग करके आसक्ति शून्य हो करके या परित्याग करके भगवान् का एकमात्र भजन करो।”
[हिरण्यकशिपु ने यह] सुनते ही प्रह्लाद महाराज को अपनी गोदी से फेंक दिया।
[हिरण्यकशिपु ने षण्ड-अमर्क से कहा–] “क्यों सिखलायी ऐसी बात? बच्चा कहाँ से सीखा?”
गुरुजी ने कहा– “मैंने तो सिखलाया नहीं।”
[हिरण्यकशिपु ने कहा–] “तूने नहीं सिखलाया, तो कहाँ से सीखा? अभी हम तुमको मारेंगे।”
[षण्ड-अमर्क ने] कहा– “महाराज! हमनें नहीं सिखलाया। ये अपने स्वाभाविक रूप से ऐसा कहता है।”
गुरुजी बड़ी मुश्किल से हिरण्यकशिपु से बच्चे को ले करके फिर विद्यालय (school) में आये और बोले– “तू सच बता, मैं तुम्हारा गुरु हूँ। किसने सिखलाया?”
उन्होंने कहा– “‘मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो वा’ [#1]– भगवान् कृष्ण में मति जो होती है, ऐसे नहीं होती। संसार के मनुष्य लाखों चेष्टा करके नहीं कर सकते हैं। ये तो बड़े सौभाग्य से यदि भगवान् की कृपा हो और ऐसे सन्त की कृपा हो, तब तो कृष्ण में मति लगती है।”
साधारण रूप में अफ़ीम तो, ये नशा है न? और विष है। कुछ दिन ज़रा अफ़ीम खा करके देखा जाये, फिर छूटेगा नहीं। अरे! और की तो बात छोड़ो। तम्बाकू लोग खाते हैं, या [मुख में] रख लेते हैं, ना क्या करते हैं? सुपारी खाते हैं, इसी को नहीं छोड़ पाते।
मैंने कभी किसी से कहा कि भाई!... [वे व्यक्ति] हरिनाम करने के लिए कह रहे थे। मैंने [उनसे] कहा कि सबसे पहले प्याज़ लहसुन छोड़ो।
[उन्होंने कहा–] “ये तो छूटना बड़ा भारी मुश्किल है, ये नहीं छूट सकता।”
एक व्यक्ति को मूँछ थी। वे सूबेदार थे, सेना (military) में बहुत रहे और लम्बे-चौड़े थे, लम्बे पहाड़ी थे, और उनकी गोंप (तावदार, मुड़ी हुई या ऐंठी हुई मूँछ) ऐसी थी, बनाये रखे थे।
[मैंने कहा–] “भगवान् का भजन करेंगे, तो पहले ये केश को और इसको (मूँछों) हटा करके तब दीक्षा ली जाती है।”
[उन्होंने कहा–] “हाय! मैं इसको तो नहीं छोड़ सकता। ये तो प्राण से भी अधिक प्यारी है।”
[मैंने कहा–] “माने एक तराजू पर अपनी मूँछ और भगवान् को रखिये, कौन भारी है? बतलाइये तो?”
[उन्होंने कहा–] “ये बात तो ठीक कह रहे हैं कि भगवान् ही बड़े हैं।”
[मैंने कहा–] “तब तो फिर?”
साथ-ही-साथ उन्होंने कटवा करके और फिर भजन करना [प्रारम्भ किया।]
[हम लोगों से] साधारण चीज़ें नहीं छूट पाती हैं। भगवान् भी तो देखेंगे कि हमको चाहता है तो हमारे लिए कुछ छोड़ सकता है कि नहीं ये बुरी चीजें? प्याज़, लहसुन, अफ़ीम, बीड़ी, सिगरेट– ये सब [गन्दी] चीज़ें हैं। भगवान् के लिए क्यों नहीं छोड़ सकते हैं? एक सेकण्ड में ही छूट जायेगा। यहाँ तक कि देवता-देवियों का भजन भी [छोड़ दो क्योंकि] ये सांसारिक वस्तु के रूप में हमें क्लेश ही देते हैं। उनका भी सब छोड़ दो। ऐसे लाखों उदाहरण हैं। इसलिये एकान्तिक चित्त से यदि भजन करने की लालसा है और अपने जीवन को सार्थक बनाना [चाहते हो,] तो प्रह्लाद महाराज का ये उपदेश धारण करना चाहिये।
उसमें कहते हैं कि वह गुरु, गुरु नहीं, जो अपना ही भजन नहीं करते, वे दूसरों को क्या सिखलायेंगे? इसलिये अपने [करने से] भी नहीं होगा, वैसे कुछ जो लौकिक-गुरु हैं उनके कहने से भी नहीं होगा। कैसे होगा? तो कहते हैं कि यदि भगवान् की कृपा हो और उनकी कृपा से कुछ सच्चे सन्त मिल गये तो उनके चरणों की धूलि से अभिषिक्त होने के बाद में ही ये चीज़ हो सकती है अन्यथा नहीं हो सकती। है तो सरल चीज़ किन्तु बड़ी कठिन चीज़ है। कृष्ण भजन में एकान्तिकता होना– ये बड़ा भारी कठिन है। ये उनकी (गुरु या भगवान् की) इच्छा (will) से होगा। एक साधारण कथा से आप देखिये।
एक बच्चा बहुत गुड़ खाता था। उसके पिता ने बहुत बार कहा [कि गुड़ मत खाया करो, किन्तु वह] माना नहीं। एक दिन वह बच्चे को गोदी में ले करके अपने गुरु के पास में गया हुआ था। [उसने अपने गुरु से कहा–] “महाराज! आप इसे एक बार कह दीजिये कि गुड़ मत खाओ। इसको [गुड़ खाने से] बहुत रोग होते हैं, खुजली इत्यादि होती है, घाव हो जाता है। आप इससे कह दीजिये।”
उन्होंने [कहा–] “कल ले आना।”
तो वह चला गया, दूसरे दिन [अपने बच्चे को] लाया।
गुरु ने कहा– “बेटा! गुड़ मत खाना।”
सचमुच में लड़के ने गुड़ खाना छोड़ दिया। पिता ने कहा– “कल ही आपने क्यों नहीं कहा, जो आज कह रहे हैं?”
[गुरु ने कहा–] “कल इसलिये [नहीं कहा क्योंकि] कल तक मैं [स्वयं] गुड़ खाता था। इसलिये मैंने [कल] नहीं कहा, नहीं तो फिर हम जो कहते वह पालन नहीं करता।” फिर जो स्वयं ही भजन नहीं करता, वह दूसरों से क्या [भजन] करायेगा? इसलिये पहले सच्चरित्र हो करके, इन सब बुरी आदतों को दूर करके भगवान् का भजन करो। जो [स्वयं आचरण] करता है, वही दूसरों को करा सकता है, दूसरे [ऐसा] नहीं कर सकते। अपने मन से भी नहीं छोड़ सकते। इसलिये वैष्णवों के चरणों में अभिषिक्त हुए बिना, उनकी कृपा के बिना भजन में लगना और भजन करना बड़ा भारी कठिन है। और जब तक ऐसा नहीं होगा, इस दुःखमय संसार से हम कभी भी पार नहीं हो सकते हैं, ये एकदम त्रिसत्य है। प्रह्लाद महाराज ने यह शिक्षा दी।
एक दिन उनके गुरु कहीं बाहर चले गये। [प्रह्लाद महाराज] बच्चों [के मध्य] में बैठ गये। बच्चों ने कहा– “अब चलो, हम खेलने चलें।”
प्रह्लाद महाराजजी ने कहा– “आज तो नहीं खेलेंगे। आज हम लोग दो-चार बातें, हरिचर्चा करेंगे।”
[बच्चों ने कहा–] “हरिचर्चा क्या [होती है?”]
[प्रह्लाद महाराजजी ने कहा–] “हाँ, तो सुनो हरिचर्चा किसको कहते हैं। देखो, बचपन से ही भगवान् का भजन करना चाहिये।” बचपन से ही भगवान् का भजन करना चाहिये। क्या श्लोक है?
भक्त: कौमार आचरेत् प्राज्ञो [#2]
श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: ‘कौमार आचरेत् प्राज्ञो’– जो बुद्धिमान हैं, वे बचपन से ही, छोटी उम्र से ही भगवान् का भजन करें। क्यों करें? [प्रायः लोग कहते हैं–] “पहले संसार भोग लें, पहले पढ़-लिख लें, किसी एक विषय में निपुण (expert) हो जायें। काफी सम्पत्ति होगी, उसका भोग-वोग कर लेंगे। जब बूढ़े हो जायेंगे, तब भगवान् का भजन करेंगे। बूढ़ी होने पर [भगवान् का भजन करेंगे।”]
कहते हैं कि यदि बीच में मृत्यु हो गयी तो क्या करेगा? कोई गारंटी है कि कितने दिन रहेगा, नहीं रहेगा? कब मृत्यु हो जायेगी? किसी की कोई गारंटी नहीं। केवल एक व्यक्ति की सात दिन की गारंटी थी। किसकी?
भक्त: महाराज परीक्षित की
श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: और किसी की गारंटी नहीं है, भाई। सात दिन की उनकी गारंटी थी। हम लोगों का कोई निश्चित नहीं है कि कब [तक] जीवित रहेंगे? कब मर जायेंगे? इसलिये आज ही से–
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब॥
-कबीरदास
[जो काम कल करना है, उसे आज करो और जो आज करना है, उसे अभी करो, क्योंकि पलभर में प्रलय जो जायेगी, फिर आप अपने काम कब करेंगे?]
आज ही करना है। एक सेकण्ड भी उसके लिए प्रतीक्षा नहीं करनी है। ये सब कुछ अपनी दृढ़ता के ऊपर में निर्भर है। इसलिये कह रहे हैं– “कौमार काल से [भगवान् का भजन करना चाहिये।”] क्यों? बुद्धि अभी निर्मल रहती है। जैसा बच्चों को सिखलाया जाता है, सीख जाते हैं। किसी को उपदेश दे करके, साठ वर्ष के बाद में उसकी मति कोई बदल नहीं सकता। उस समय लगभग अपनी एक पक्की धारणा हो जाती है। इसलिये उसका संस्कार नहीं बदल सकते। इसलिये बचपन में बच्चों को जो शिक्षा देंगे, वही सब ग्रहण करते हैं।
उसने कहा– “नहीं भाई, अभी हम भजन नहीं करेंगे। कुछ दिन संसार में रह लें, देख लें, सुन लें, तब करेंगे। बूढ़े होने पर करेंगे।”
[उसके लिए कहते हैं–] “यदि बच भी जायेगा, तो बूढ़े होने में तो तुम्हारी कमर ही सीधी नहीं होगी, तो तू क्या भजन करेगा?”
[उसने कहा–] “तो फिर भजन करेंगे, तो खायेंगे कहाँ से? पहले से हम कमा करके तो रख लें। एक ऐसी स्थिति कर लें, जिससे कि हम लोग भजन कर सकेंगे।”
तो उसके लिए कहते हैं कि - देखो, कोई संसार में दुःख नहीं चाहता, कोई भी नहीं चाहता, किन्तु दुःख क्यों आता है? क्यों आता है? इसलिये यदि सुख भी होगा तो अपने आप आयेगा। लाख चेष्टा करेगा, कुछ नहीं होगा और यदि सुख लिखा है तो सुख आ जायेगा। इसलिये कुछ नये कर्म करो। भाग्य के ऊपर में भी टिकना नहीं है। भाग्य माने क्या वस्तु? पूर्वजन्म का किया हुआ कर्म का फल। इस जन्म में तुम [नया] नहीं करेगा, वैसा ही पहले जैसा करेगा, तब तो वैसा ही दुःख आयेगा, फिर जन्म-मरण के चक्कर में पड़ोगे। इसलिये बुद्धिमान पुरुष भविष्य की चिन्ता नहीं करते कि भविष्य में क्या होगा? बल्कि ये चिन्ता करते हैं कि हम कैसे भवसागर से निकलें और हमारा जीवन सुखमय, शान्तिमय और मधुर हो। ये कैसे होगा? इसलिये कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति संसार में ऐसा नहीं है, जो सुख के लिए चेष्टा नहीं करता। सभी करते हैं। यहाँ तक कि [संयुक्त] राष्ट्रसङ्घ इत्यादि में भी सुख के लिए चेष्टा करते हैं किन्तु उल्टा होता है, दुःख ही दुःख मिलता है। सुख के लिए विवाह करते हैं और दो दिन के बाद में लड़की अपने पति के घर से चली आयी। नहीं रख सके। क्या हुआ? बच्चे पैदा हुए, वे यदि दुष्ट निकले तो? ऐसा भी होता है। इसलिये हम सुख के लिए [चेष्टा] करते हैं, किन्तु होता है– दुःख। इसलिये–
तत्प्रयासो न कर्त्तव्यो यत आयुर्व्यय: परम्।
न तथा विन्दते क्षेमं मुकुन्दचरणाम्बुजम् ॥
-श्रीमद्भागवतम् (7.6.4)
[अतः सुख-प्राप्ति के लिए कभी कोई प्रयास नहीं करना चाहिये। इन प्रयासों से मात्र आयु एवं शक्ति का क्षय होता है। भवबन्धन से मुक्त करनेवाले भगवान् मुकुन्द के चरणारविन्द की सेवा से जिस आत्यन्तिक श्रेय की प्राप्ति होती है, वैषयिक सुखों के लिए प्रयत्न करनेपर उस निःश्रेयस की प्राप्ति नहीं हो सकती।] GVP
इसलिये भगवान् के चरणों के अतिरिक्त कहीं सुख नहीं है। इसलिये भगवान् के चरणों का तुम भजन करो। उनपर आश्रय करो। तुमने पहले भजन नहीं किया। इसलिये तुम्हारा जन्म-मरण हो रहा है। तुम समझो कि ये हाड़-माँस का पुतला ‘मैं नहीं हूँ।’ मैं भगवान् का नित्यदास हूँ। उन्हीं का अंश हूँ। इस [शरीर] में हम (आत्मा) आये हैं। बिना भगवद्-भजन के, भगवान् से मिले [बिना] हमको सुख और शान्ति नहीं है।
रुपये से ही [सुख और शान्ति] मिलती तो संसार में सबसे बड़ा धनी रावण था। लंका में उसकी प्राचीर, उसके जितने सब महल थे, वे सब सोने के थे, जवाहरात के थे। कहाँ सुख रहा? उसके वंश में प्रदीप देने के लिए कोई नाती और पोते तक नहीं रहे। सब [मारे गये। उसके] एक लाख पुत्र, सवा लाख नाती थे, किन्तु दिया और बाती देने के लिए कोई वंश में नहीं रहा। इसके द्वारा सुख नहीं है।
सुख [कब] होगा? हम भगवान् के अंश (part and parcel) हैं। यदि हम लोगों ने बचपन से उनका भजन किया तो हमको सुख-शान्ति हो सकता है, इस जन्म में भी दूसरे जन्म में भी। इसलिये कृष्ण कभी-कभी जगत् में सन्तों को [अर्थात्] अपनी शक्ति को भेजते हैं और कभी-कभी स्वयं भी इस जगत् में आते हैं। जैसे इस जगत् में नारद इत्यादि को भेजते हैं, सन्तों को भेजते हैं और कभी-कभी राम, कृष्ण या नृसिंह इत्यादि रूपों में जगत् में आते हैं। राम और कृष्ण रूप में लीलाएँ करते हैं और अपने पीछे लीलाओं को छोड़ देते हैं। यदि उन लीलाओं को, उनके नाम को कोई एक बार भी चित्त से श्रवण करे तो संसार के सारे दुःख मिट जाते हैं।
आप लोगों ने शबरी का नाम सुना होगा। वे एक दीन-हीन नीच कुल में जन्मी थीं, किन्तु उनके गुरु थे– मातङ्ग ऋषि। जब उनके यहाँ भजन होता था, कीर्तन होता, राम की हरिकथा होती, बड़े-बड़े साधु-सन्त लोग आते थे। ये भी बहुत दूर से बैठ करके [हरिकथा] सुनती, बहुत दूर से।
एक दिन वहाँ के ऋषियों ने कहा– “ये नीच जाति की शूद्रा है। यहाँ पास में आती है, हम लोग यहाँ नहीं आयेंगे और आपसे सम्बन्ध नहीं रखेंगे।”
मातङ्गजी ने कहा– “तुम लोग भले ही नहीं आना।” और उसको बुला करके कहा– “एकदम हमारे निकट बैठो। यही सबसे योग्य है। यही ब्राह्मणी है। यदि भगवद्-भजन का गुण नहीं है, तो ब्राह्मण, ब्राह्मण नहीं है और यदि शूद्र में भगवद्-भजन करने की लालसा है, तो वह शूद्र नहीं, वही ब्राह्मण है। गुण से व्यक्ति ब्राह्मण होता है। ब्रह्म को जो जाना नहीं तो वह ब्राह्मण कैसे रहा? केवल सूत्र से ब्राह्मण नहीं होता, भगवद्-भजन से होता है। इसलिये तुम ही सबसे योग्य हो।” इस प्रकार से हमारे ऋषियों का भी ऐसा विचार था। इसलिये बचपन से ही भगवान् का भजन करने की चेष्टा करनी चाहिये।
हम लोग सब विषयों में असहाय हैं। जीवित रहने में भी असहाय हैं। दुःखों को दूर करने में भी असहाय हैं। हम लोग एक साधारण क्रोध भी दूर नहीं कर पाते। इसलिये पहले भगवान् के शरणागत हो करके… पहले भगवान् कहाँ मिलेंगे? पहले गुरु के शरणागत हो। गुरु के निर्देश से उस तत्त्व को जानो कि मैं ये शरीर नहीं, इसके भीतर में आत्मा हूँ और जब तक आत्मा का भगवान् से सम्बन्ध नहीं होगा, हम सुखी नहीं हो सकते हैं।
कलियुग में भगवान् की उपासना का सबसे सरल, सहज तरीका है– भगवान् का नाम-कीर्तन। इससे और कोई सहज तरीका नहीं है। आप अशुद्ध हैं, आप चाहे जिस कुल में जन्मे हैं, मुसलमान हों, हिन्दू हों, सिख हों, कोई भी हों, भगवान् के नाम में सबका अधिकार है। यहाँ तक कि पशु-पक्षियों का भी [भगवान् का नाम] सुनने में अधिकार है। वे सुन सकते हैं। इस समय मैं अपवित्र हूँ, [इसलिये भगवान् का नाम नहीं कर सकता, ऐसा नहीं है।] एक व्यक्ति मरने बैठा है, मल-त्याग हो रहा है, उस समय भी भगवान् का नाम कर सकता है। पुराणों में हनुमानजी का [एक प्रसङ्ग] उल्लेख है।
एक समय एक तेली तेल पेरता था, कोल्हू चलाता था। बैल की आँख को बन्द करके और उसे घूमाता और ‘हाट-हाट, चल-चल’ करता रहता। दिनभर, रातभर में कभी भगवान् का नाम नहीं लेता। एक दिन नारदजी ने कहा– “तू भगवान् का नाम नहीं करता है, तुम्हारा कैसे उद्धार होगा?”
[तेली ने कहा–] “मुझे समय नहीं मिलता।”
[नारदजी ने कहा–] “तो पैखाना करते समय क्या करता है?”
[तेली ने कहा–] “उस समय कर सकते हैं।”
[नारदजी ने कहा–] “हाँ, कर सकते हो।”
नारदजी चले गये। वह जब शाम को [अथवा] रात में पैखाना करने गया, तो वहीं पर बैठ करके और ‘राम-राम’ करने लगा। जहाँ पर ये नाम होता है, वहाँ पर हनुमानजी अवश्य आते हैं। वे वहाँ पर…[#3]
[हरिकथा में अचानक कटौती]
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#1
मतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वा मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम्।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं पुनः पुनश्चर्वितचर्वणानाम्॥
-श्रीमद्भागवतम् (7.5.30)
गृहासक्त व्यक्ति अपनी असंयमित इन्द्रियों के कारण संसाररूपी घोर अन्धकारमय नरक में ही लिप्त रहते हैं। ये देहात्मबुद्धि वाले चबाये हुए को फिर से चबा रहे हैं। इन गृहासक्त पुरुषों की बुद्धि न तो दूसरों के सिखाने से, न अपनी चेष्टाओं से और न ही इन दोनों के संयोग से भगवान् में लग सकती है। (GVP)
#2
कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवातानिह।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम्॥
-श्रीमद्भागवतम् (7.6.1)
बुद्धिमान् व्यक्ति को मनुष्य-जन्म प्राप्त करके बाल्यावस्था से ही अन्यान्य प्रयासों को त्यागकर भागवत-धर्म का अनुष्ठान करना चाहिये क्योंकि इस संसार में मनुष्य-जन्म अति दुर्लभ और क्षणस्थायी है। क्षणस्थायी होनेपर भी इसकी विशेषता यह है कि क्षणकाल भक्ति करनेपर ही परम सिद्धि प्राप्त हो जाती है। (GVP)
#3
हनुमानजी वहाँ पर आये और तेली को बड़ी जोर से खेंच कर एक लात मारी, किन्तु उस तेली को कुछ भी नहीं हुआ।
वह तेली ‘राम-राम’, ‘राम-राम’ कहता रहा। हनुमानजी ने सोचा– “ये बड़ी विचित्र बात है, ये क्या हो गया? इतनी जोर से मारा। रावण तो इतने में गिर गया था और कुम्भकर्ण जैसे व्यक्ति के भी मुख में मिट्टी भर गयी थी और इसको कुछ भी नहीं हुआ। भाई! ये बात क्या है?” इसके बाद में विचार करते-करते, चिन्ता करते-करते, किन्तु उनको कुछ मालूम नहीं हो रहा कि क्यों ऐसा हुआ? और वह तेली आराम से ‘राम-राम’ कहता हुआ फिर चला गया।
हनुमानजी बड़े चिन्तित हो करके बस रात को रामचन्द्रजी के राजदरबार में उपस्थित हुए और विचार करने लगे कि आज उन्हीं से पूछूँगा। इधर रामचन्द्रजी पलङ्ग पर बैठे हुए ‘ऊह-आह’ कर रहे हैं, मानों उनको बहुत दर्द हो रहा है। जब वहाँ पर रामचन्द्रजी के सामने गये, तो प्रश्न पूछने वाले थे। किन्तु प्रभु को कष्ट में देखकर वे अपना प्रश्न तो भूल गये और प्रभु से पूछा– “प्रभु! आपको ये कष्ट कैसे हो रहा है, जो ‘ऊह-आह’ कर रहे हैं? आपको क्या हो गया?”
रामचन्द्रजी ने कहा– “तुम तो अच्छे व्यक्ति हो! उधर मेरी पीठ पर लात जमायी और इधर कहता है कि आपको क्या हो गया?”
हनुमानजी ने कहा– “अरे! मैंने कब लात जमायी? कभी ये हो सकता है, प्रभु? आप मेरे आराध्यदेव हैं, मैं कभी ऐसी गलती नहीं कर सकता।”
रामचन्द्रजी ने कहा– “अरे! जब वह तेली मल-त्याग करते समय नाम कर रहा था, उसको तुमने जो लात जमायी। उस समय उसके ‘राम-राम’ कहते ही मैं उसके शरीर में प्रवेश करके, मैं ही उसके भीतर में चला गया और तुमने जो लात जमायी, वह उसको न लग करके मुझे लगी।”
हनुमानजी ने कहा– “अब मैं कान पकड़ता हूँ। आगे से ऐसा कभी नहीं करूँगा।”
Reference: https://harikatha.com/audios/223/
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