Glories of the Holy Name
36:57Topics
- One cannot attain liberation without chanting the Lord’s holy name.
- Bhagavan surely comes to whoever chants the holy name of the Lord.
- The Lord’s holy name is the essence of all sastras.
- Rama and Krsna are the same in tattva but different in rasa.
- To show the importance of prema, Srimad Bhagavatam descended.
- Explanation of the pastime of Ajamila.
Transcript
हरिनाम की महिमा
[श्रील भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराज ने यह हरिकथा कही थी। [तिथि एवं स्थान अज्ञात]
नोट: इस प्रतिलेखन में निम्नलिखित सम्पादकीय योगदान हैं: कुछ स्थानों पर भाषा को थोड़ा सम्पादित किया गया है, समाप्ति-नोट्स (endnotes) जोड़े गये हैं और विषय-वस्तु के प्रवाह और बोधगम्यता को सुविधाजनक बनाने के लिए वर्गाकार कोष्ठकों (square brackets) में अतिरिक्त पाठ सम्मिलित किया गया है। इसका शाब्दिक प्रतिलेखन शीघ्र ही उपलब्ध होगा।
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श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: [प्रकाशानन्द सरस्वती ने श्रीचैतन्य महाप्रभु से कहा–] “माना कि तू हमारे सम्प्रदाय का संन्यासी है, [किन्तु] हम लोग तो सौयत्रिक नहीं करते।” सौयत्रिक अर्थात् गाना, बजाना, नाचना।
[प्रकाशानन्द सरस्वती ने कहा–] “ये सन्तों के लिए, संन्यासियों के लिए उचित नहीं है। यह [कार्य] तो कमानेवाले, व्यवसाय करनेवाले [करते हैं।] वे नाचते हैं, गाते हैं, लोगो का मनोरञ्जन करके पैसा ले करके जीवन का निर्वाह करते हैं। ये [सब कार्य] सन्तों को नहीं करना चाहिये। तो तुम संन्यासी हो करके ऐसा नाचते हो, गाते हो। ऐसा [करना] तो उचित नहीं है। क्यों ऐसा करते हो? कीर्तन करने के समय में क्यों रोते हो?”
[श्रीचैतन्य महाप्रभु] ने सरल शब्दों में कहा– “मैं बहुत ही मूर्ख व्यक्ति हूँ। मेरे गुरुजी ने देखा कि इसको कुछ आता-जाता नहीं है, कुछ भी ज्ञान नहीं है, ये मूर्ख है। [उन्होंने] देखा कि इसके समान और कोई मूर्ख नहीं है। इसको कुछ आता-जाता [नहीं है।] इसलिये उन्होंने मेरे लिए आदेश दिया कि देखो, ये एक श्लोक याद कर लो।”
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
-बृहन्नारदीय पुराण (38.126)
[कलियुग में केवल हरिनाम ही, हरिनाम ही, हरिनाम ही एकमात्र साधन है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई गति नहीं है, नहीं है, नहीं है।] GVP
हरिनाम ही केवल एकमात्र, हरिनाम ही और हरिनाम ही हमारे लिए गति है, गति है, गति है और कोई गति नहीं है, नहीं है और नहीं है। सब में तीन-तीन बार बतलाया। पत्थर की रेखा भले ही मिट जाये, सूर्य पूर्व में न उग करके पश्चिम में उग सके, भले ही हम सिर के बल चलें, पैर के बल हम खायें [अर्थात्] पैर से [खायें]– ये सब कुछ हो सकता है। भले ही अग्नि के द्वारा बर्फ निकल जाये, भले ही अन्धकार सूर्य को निगल जाये, भले ही आकाश में पुष्प खिल जाये, ये भी मान लेंगे। भले ही जमीन की रेती को पीसने से तेल आ जाये, पानी को मथने से घी भले ही निकल जाये, किन्तु भगवद्-नाम के बिना गति नहीं है, गति नहीं है, और नहीं है। समस्त उपनिषदों में इसको कहा है, केवल एक ही उपनिषद् में नहीं। 1008 उपनिषद् हैं। मूल उपनिषदों में ऐसा कहा गया है। कलिसन्तरण उपनिषद् आज ही का नहीं, लाख कोटि वर्ष पुराना है। लाख कोटि वर्ष भी कहेंगे तो ये ‘आदि’ हो जाता है। वेद अनादि हैं। उसमें लिखा गया है–
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
श्रीचैतन्य महाप्रभु ने वेदों से इसको आविष्कार किया। [उन्होंने] कहा कि समस्त नामों से [अधिक] शक्ति इस नाम में है। ये महामन्त्र है, केवल मन्त्र नहीं है। इस नाम को ही जप करना है। इसी के लिए ‘हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्। कलौ नास्त्येव [नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा’ कहा गया है] और दूसरा महामन्त्र इत्यादि नहीं है। बहुत से लोग सब मन्त्रों को लेते हैं, किन्तु सबसे श्रेष्ठ यही [महा]मन्त्र है।
[यह] कितना शक्तिशाली है! जूठे मुख भी करें, सोते हुए करें, चलते हुए करें, अपने काम को करते हुए करें, चित्त अशुद्ध होने पर भी करें, मल-त्याग हो रहा है, पैखाना निकल रहा है, तब भी ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण’ कह सकते हैं, उसमें कोई भी बात नहीं है।
यहाँ तक कि एक तेली था। उसे हरिनाम करने का समय नहीं मिलता था। वह दिन-रात कोल्हू चलाता था और बैल को ‘हाक-हाक-हाक, चल-चल-चल’ ऐसा कहता था।
नारदजी ने कहा– “ये जीवन तो तुम्हारा वृथा गया। तुम एक बार भी हरिनाम नहीं कर सकते?”
[तेली ने] बोला– “मुझे तो समय ही नहीं मिलता है, मैं क्या करूँ?”
[नारदजी ने कहा–] “पैखाना जाने के समय में क्या करते हो?
[तेली ने कहा–] “उस समय करने से चलेगा?”
[नारदजी ने कहा–] “हाँ, चलेगा।”
बस एक दिन [तेली] उठा। रात में पैखाना लगा और पैखाना जा करके जब मल-त्याग करने लगा तो ‘राम-राम’ करने लग गया। इतने में हनुमानजी [आये।] जहाँ नाम होगा, वे अवश्य ही रहेंगे। बस हनुमानजी आये और [तेली को] बड़ी जोर से खेंच कर एक लात मारी।
[इनके मारने से] रावण तो भीमिलिया खा गया [अर्थात् ऐसे गिर पड़ा जैसे वज्र की मार से पर्वत गिरा हो। उसके] मुख में मिट्टी लग गयी। वह इनके एक लात मारने से गिर गया और मेघनाद जैसे वीर लोग सुधबुध भूल करके मिट्टी में लोटने लगे और फिर हनुमान के सामने जाने में डरते थे, [किन्तु] उस तेली को कुछ भी नहीं हुआ।
वह [तेली] राम-राम, राम-राम कहता रहा। हनुमानजी [ने सोचा–] “ये बड़ी विचित्र बात है, ये क्या हो गया? इतनी जोर से मारा। रावण तो इतने में गिर गया था और कुम्भकर्ण जैसे व्यक्ति के भी मुख में मिट्टी भर गयी थी और इसको कुछ भी नहीं हुआ। भाई! ये बात क्या है?” इसके बाद में विचार करते-करते, चिन्ता करते-करते, किन्तु उनको कुछ मालूम नहीं हो रहा कि क्यों ऐसा हुआ? और वह [तेली] आराम से [राम-राम] कहता हुआ फिर चला गया।
हनुमानजी बड़े चिन्तित हो करके बस रात को रामचन्द्रजी के राजदरबार में उपस्थित हुए [और विचार करने लगे कि] “आज उन्हीं से पूछूँगा।” इधर रामचन्द्रजी पलङ्ग पर बैठे हुए ‘ऊह-आह’ कर रहे हैं, मानों उनको बहुत दर्द हो रहा है। जब वहाँ पर रामचन्द्रजी के सामने गये, तो [प्रश्न] पूछने वाले थे। [किन्तु प्रभु को कष्ट में देखकर] वे अपना प्रश्न तो भूल गये [और प्रभु से पूछा,] “प्रभु! आपको ये कष्ट कैसे हो रहा है, जो ऊह-आह कर रहे हैं? आपको क्या हो गया?”
[रामचन्द्रजी ने] कहा– “तुम तो अच्छे व्यक्ति हो! उधर मेरी पीठ पर लात जमायी और इधर कहता है कि आपको क्या हो गया?”
[हनुमानजी ने कहा–] “अरे! मैंने कब लात जमायी? कभी ये हो सकता है, प्रभु? आप मेरे आराध्यदेव हैं, मैं कभी ऐसी गलती नहीं कर सकता।”
[रामचन्द्रजी ने कहा–] “अरे! जब वह तेली मल-त्याग करते समय नाम कर रहा था, उसको तुमने जो लात जमायी। उस समय उसके ‘राम-राम’ कहते ही मैं उसके शरीर में प्रवेश करके, मैं ही उसके भीतर में चला गया और तुमने जो लात जमायी, वह उसको न लग करके मुझे लगी।”
[हनुमानजी ने] कहा– “अब मैं कान पकड़ता हूँ। आगे से ऐसा कभी नहीं करूँगा।”
जिस समय जैसे भी, कोई भगवद् नाम करता है, उसमें भगवान् अवश्य आ जाते हैं। इसलिये यहाँ पर ‘नाम’ और ‘नामी’ अभिन्न हैं। शुकदेव गोस्वामीजी परीक्षितजी को यही बात कह रहे हैं। जैसे कोई भी व्यक्ति हो, बहुत दुराचारी हो। आपने तो कोई दुराचार नहीं किया, किन्तु यदि दुराचारी व्यक्ति भी हो...
आज इस कथा के माध्यम से वेदों के लिए भी जो परमगुह्य वस्तु है, उस बात को मैं बतला रहा हूँ। वेदों का भी परमगुह्य ये भगवद् नाम है। ॐकार जो है न, ॐकार से गायत्री हुयी। ॐ=अ+उ+म। ‘अकारने उच्यते कृष्ण’–‘अ’ माने कृष्ण। ‘उकारने उच्यते राधा’–‘उकार’ से इसमें राधाजी और ‘मकार जीववाचकः’। हम लोग जो जीव हैं, हम लोग कृष्ण के विभिन्नांश (part and parcel) हैं। हम लोगों के लिए ये ‘मकार’ आया। यदि ये ‘म’ अर्थात् जीव श्रीराधाकृष्ण की आराधना करे, उनका नाम करे, सहज रूप में ही हम लोग इसे [प्राप्त कर लेंगे।] इसी प्रकार से उस गायत्री का भी अर्थ श्रीमद्भागवत है– ‘सत्यं परं धीमहि’। गायत्री में भी वैसा ही आया है, ‘धीमहि’। जो आप लोग गायत्री जानते होंगे, तो देखिये इसमें भी [‘धीमहि’ आया।] तो इसी प्रकार से ये श्रीमद्भागवत गायत्री का अर्थ है। वेदों का, शास्त्रों का अर्थ है। मैं [इसका सार] बतला रहा हूँ।
देखो! भागवत में या तुलसीकृत रामायण या बाल्मीकि इत्यादि जितने भी रामायण हैं, उसमें सार नाम कृष्ण या राम नाम है। मैं चला तो था अजामिल [का प्रसङ्ग बतलाने] के लिए, किन्तु बीच में कभी थोड़े से [अन्य] प्रसङ्ग याद आ जाते हैं, इसलिये मैं आप लोगों को थोड़ा सा बतलाता हूँ। यदि फिर समय ऐसा होगा, तो फिर कुछ बतलाने की चेष्टा करूँगा।
देखिये, वाल्मीकि रामायण बन गया। उसमें एक लाख श्लोक हुए। उसको विभाग करने के लिए लोगों में झगड़ा होने लगा। असुर, दैत्य कहने लगे कि हम लोग इसको लेंगे और देवता लोग कहने लगे कि हम लेंगे और मनुष्यों ने कहा कि हम लेंगे। तीनों [दलों] में विवाद होने लगा। मारा-मारी, हाथापाई की स्थिति आ गई। परस्पर एक दूसरे से छीनने लगे। बड़ा भारी विवाद आरम्भ हुआ।
इतने में शङ्करजी आये [और उनसे कहा–] “अरे भाई! किसलिये लड़ते हो? मैं तुम लोगों को विभाग करके दे देता हूँ।”
[उन्होंने कहा–] “ठीक है।”
शङ्करजी ने सबको बैठा दिया [और रामायण के श्लोकों का] विभाग करने लगे। देखो, उन्होंने एक लाख श्लोकों में से 33000-33000-33000 तीनों को विभाग करके दे दिया। 99000 [का विभाग] हो गया, अब एक हज़ार [श्लोक बचे।] अब एक हज़ार [श्लोक] का 333-333-333 विभाग किया, तो एक बच गया। अब एक [श्लोक को] विभाग करना है। एक श्लोक में चार चरण होते हैं। तो उन्होंने [तीनों को] एक-एक चरण दे दिया। अब एक चरण रह गया। एक चरण में आठ अक्षर होते हैं। तो आठ अक्षर में [से तीनों को] 2-2-2 दे दिये। अब बचे कितने? 2 [अक्षर] बच गये।
[शङ्करजी] कहने लगे– “भाई! तुम लोगों पर मैंने बहुत परिश्रम किया है। अब मैं दो अक्षर अपने लिए लेता हूँ।” वे दो [अक्षर] क्या हैं? ‘राम’।
इस प्रकार समस्त शास्त्रों का सार ये राम नाम और ये कृष्ण नाम है। उसमें भी एक हजार बार विष्णु का नाम यदि कोई ले, तो एक राम नाम के बराबर होता है, ये भी वेद का गोपनीय विषय है।
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनामभिस्तुल्यं रामनाम वरानने॥
-पद्मपुराण
[‘राम’ ‘राम’ ‘राम’ कहकर मनोरम जो राम हैं, मैं उनमें रमण (आनन्द प्राप्त) करता हूँ। हे वरानने! (सुन्दरी) एक राम नाम सहस्र विष्णुनामों के तुल्य है।] IGVP
पद्मपुराण में इसको कहा गया। यदि हम एक बार विष्णु सहस्त्र नाम का पाठ करें या एक हजार बार विष्णु, विष्णु, विष्णु नाम लें, तो यह एक राम नाम करने के बराबर हो जायेगा। यदि एक बार राम कहा तो विष्णु का हो गया– एक हजार नाम। और यदि तीन बार विष्णु सहस्त्र नाम अर्थात् तीन हजार बार [विष्णु का नाम] करें, तो यह तीन राम नाम [अर्थात् एक कृष्ण नाम] के बराबर हुआ।
सहस्रनाम्नां पुण्यानां त्रिरावृत्त्या तु यत्फलम्।
एकावृत्त्या तु कृष्णस्य नामैकं तत् प्रयच्छति॥
-ब्रह्माण्डपुराण
[विष्णु के पवित्र सहस्रनामों का तीन बार पाठ करने से जो फल होता है, कृष्णनाम एक बार उच्चारित होने से ही वही फल देते हैं।] IGVP
एक बार कृष्ण नाम किया न, तो तीन राम नाम के बराबर हो जायेगा। क्यों? इसका कारण है। राम और कृष्ण दो नहीं हैं। जैसे एक पूर्ण चाँद है, अष्टमी का चाँद है, नवमी का चाँद है। एक ही चाँद है, किन्तु यहाँ के दृष्टिकोण (Angle of vision) से दृष्टि करने से, समदृष्टिकोण से जहाँ मैं हूँ, वहाँ से देखने से चन्द्र अष्टमी, नवमी का दिखता है। किन्तु जब एक [व्यक्ति] ऊपर में उठ जायेगा, तो सब समय प्रतिदिन ही पूर्ण चाँद है। किन्तु पृथ्वी की छाया से ऐसा दिखता है। इसलिये चाँद दो नहीं हो जायेंगे। इसलिये प्रतिपदा का, द्वितीया का, पूर्णिमा का चाँद अलग नहीं होगा। केवल देखनेवाले को प्रकाश उतना ही मिलेगा, आंशिक रूप में। ठीक वैसे राम और कृष्ण में कोई भी अन्तर नहीं है। एक ही तत्त्व है। दो हैं ही नहीं, किन्तु कुछ ‘रसेनोत्कृष्यते कृष्णरूपमेषा रसस्थितिः’[#1] कृष्ण तत्त्व में बारह रस सम्पूर्ण रूप में प्रकाशित हैं और समस्त जितनी शक्तियाँ हैं, कृष्ण में [सम्पूर्ण रूप में] प्रकाशित हैं।
रामचन्द्रजी [की लीला] में राम को मर्यादा के बन्धन में बाँध दिया। वे मर्यादा के ऊपर कुछ लीला नहीं करेंगे। यदि जनकपुर की राजमहिलाएँ, राजकुमारियाँ कहें– “आपने सीताजी के साथ में विवाह कर लिया है, हम भी आपसे विवाह करना चाहती हैं।” तो राम करेंगे? ये नहीं कर सकते। इनके लिए कुछ मर्यादाएँ हैं। ये मर्यादा को उल्लंघन नहीं करेंगे। और कृष्ण? प्रेम के लिए उसको [मर्यादा को] पैरों से ठुकरा देंगे। उनके लिए प्रेम ही एकमात्र वस्तु है। इसलिये उस समय [कृष्णलीला में] नहीं देखा गया कि गोपियों ने उनसे शादी की, कि नहीं की, जो आया उसी को अपना लिया। ये कृष्ण के लिए ही, कृष्णलीला में ही सम्भव है। इसलिये राम ने ‘मर्यादा-पुरुषोत्तम’ की लीला दिखायी है और कृष्ण ने ‘लीला-पुरुषोत्तम’, रसमय विग्रह के रूप में दिखलाया है।
मर्यादा [पालन] करके भी यदि भगवान् के नाम में रुचि न हो, भगवान् की भक्ति में रुचि न हो, यदि कृष्ण प्रेम ही नहीं हुआ, तो वह किस काम का? इसलिये प्रेम की महत्ता दिखलाने के लिए ही श्रीमद्भागवत की अवतारणा है। इसलिये परीक्षित महाराजजी को शुकदेव गोस्वामीजी कह रहे हैं–
एतन्निर्विद्यमानानामिच्छतामकुतोभयम्।
योगिनां नृप निर्णीतं हरेर्नामानुकीर्तनम्॥
-श्रीमद्भागवतम् (2.1.11)
[हे राजन्! जो इस संसार से विरक्त होकर ऐकान्तिक भक्ति कर रहे हैं, जिनकी स्वर्ग अथवा मोक्षादि की कामना है और जो आत्माराम योगी पुरुष हैं, उन सभी के लिए श्रीहरि के नाम और गुणों का पुनः-पुनः श्रवण, कीर्तन और स्मरण ही परम साधन और साध्य के रूप में पूर्व-पूर्व आचार्यों द्वारा निर्णीत हुआ है।] GVP
सबको नाम-संकीर्त्तन करना चाहिये। ‘स्थाने स्थिताः तनुवाङ्मनोभिः’[#2] जो गृहस्थ में हैं, जो व्यवसाय में हैं, जो वाणिज्य में हैं, जो जहाँ पर हैं, जो त्यागी हैं, जो त्यागियों के भी गुरु हैं और जो त्यागियों में भी परमभक्त प्रेमी हैं, उन सब लोगों के लिए ही भगवद् नाम, कृष्ण नाम करणीय है। अभी इस वस्तु को दिखलाने के लिए [श्रीशुकदेव गोस्वामी] कह रहे हैं।
एक ब्राह्मण का लड़का था। कान्यकुब्ज देश की बात है। गङ्गा और यमुना के बीच का जो प्रान्त (प्रदेश) है, उसको कान्यकुब्ज कहते है। आजकल के कानपुर क्षेत्र (area) को ले लिया जाये अर्थात् गङ्गोत्री और यमुनोत्री से गङ्गा और यमुना निकल करके जहाँ पर प्रयाग में मिली हैं, उस देश का भूभाग। वहीं का कोई एक ब्राह्मण लड़का था। वह बड़ा ही सदाचारी था। उसने वेदों का, स्मृतियों का भी पठन-पाठन किया था। वह बड़ा ही सुचरित्र था, माता-पिता की सेवा करता था। प्रतिदिन यज्ञ में आहुति देता था, जो पहले किया जाता था। वह सदाचार सम्पन्न अग्निहोत्री ब्राह्मण था।
एक दिन माता-पिता की सेवा के लिए वह जंगल में गया। फल-फूल लाने हैं और लकड़ी भी, यज्ञ के लिए समिधा लानी है। सूखी लकड़ियाँ, फल, फूल, जो कुछ मिल जाये, वह लाने के लिए गया। जब वहाँ जंगल में गया, एक शूद्र को देखा। शूद्र किसको कहते हैं? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र [चार वर्ण हैं।] उस समय हमारे यहाँ आज के जैसा विभाग नहीं था। शूद्र अर्थात् जो शोक करता है, उसको कहते हैं– शूद्र। रावण को राक्षस कहा गया। रावण तो ब्राह्मण का लड़का था, किन्तु उसको शूद्र से भी अधिक [नीचे] बतलाया गया। यहाँ तक की उसको राक्षस कह दिया गया। इसलिये हमारे पुराने शास्त्रों में जैसे की गीता [में कहा गया] है, ‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’ [अर्थात् गुण और कर्म के विभागानुसार ब्राह्मणादि चार प्रकार के वर्णसमूह मेरे द्वारा सृष्ट हुए हैं। (GVP)]
[वर्ण का निर्णय] पहले गुण और कर्म के [आधार पर] निरूपित होता था। आजकल जैसा नहीं था कि ब्राह्मण का लड़का भले ही उसमें कुछ भी [ब्राह्मण के गुण] न हो, वह मद्य-माँस सब कुछ खाता है, डकैती, हत्या सब करता है, तब भी वह ब्राह्मण है। [आजकल] भले ही वह जनेऊ भी न लगाये, उपवीत भी न पहने, सब दुराचार सबकुछ [करे,] तब भी वह ब्राह्मण है।
उनका व्यवसाय क्या है? जूते का कारोबार करते हैं, चमड़े का, किन्तु यदि ब्राह्मण से उनको नीचा कह दिया, शर्मा से नीचे यदि कर दिया तो, आपके ऊपर में बिगड़ जायेंगे और यदि नीचकुल में जन्म लेनेवाला प्रह्लाद जैसा भी व्यक्ति है, तो उसे हम शूद्र कहेंगे, किन्तु यथार्थ में ऐसा [नहीं है।] प्रह्लाद महाराज देवताओं के भी गुरु हैं, ब्राह्मणों के भी गुरु हैं। इसलिये पहले गुण और कर्म से ये सब विभाग था।
आजकल वह सबकुछ गड़बड़ हो चुका है। इसलिये कहा गया कि अब इन सब वस्तुओं को छोड़ दो। संस्कार होना भी बड़ा कठिन है। इसलिये अब तो जो कोई जहाँ है, जिस स्थान में है, गृहस्थ है, त्यागी है, ब्रह्मचारी है, कुछ भी है, साधु है, सन्त है, जहाँ पर भी है, ‘स्थाने स्थिता’ – अपने स्थान में रहकर के भगवान् का नाम करे। ‘हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नाम’, ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण’ ये नाम करे।
तो शुकदेव गोस्वामी परीक्षित महाराजजी को कह रहे हैं– “अब आपके पास सात दिन का समय है। सात दिन सुनिये और सहज रूप में भगवान् का नाम कीजिये। इसी से आपका उद्धार होगा।” इस वस्तु को बतलाने के लिए वह बोलते हैं कि कान्यकुब्ज में [अजामिल नाम का] ब्राह्मण था। वह फल, फूल लाने के लिए, लकड़ी लाने के लिए और समिधा लाने के लिए [जंगल में] गया और वहाँ पर देखा कि एक शूद्र मद्यपान करके, मदिरा पानकर [लड़की] के साथ में कुत्सित व्यवहार कर रहा है। लड़की भी शूद्राणी, वह अर्धनग्न अवस्था में है और उसके साथ बुरी तरह से वह व्यवहार कर रहा है। इसको देख करके अजामिल अपने को नियन्त्रित (check) नहीं कर सके। बस वह [शूद्र] जैसा कर रहा था, [उसी का चिन्तन करने लगे।]
वहाँ से उन्होंने आँख तो हटा लिया और लकड़ी और फल-फूल लेने के लिए चले गये और मन को कह रहे थे– “भाई! तुम उसकी चिन्ता मत करो, भाई! उसकी चिन्ता मत करो।” [उन्होंने मन को] बहुत संयम करने की चेष्टा की, किन्तु जितना ही संयम करने की चेष्टा की, [उतना ही फँसते गये।] जैसे एक व्यक्ति दलदल में फँस जाता है और निकलने की चेष्टा करता है, तो उतना ही धँसता हुआ चला जाता है। ठीक उसी तरह से इनकी अवस्था हुई। मन को एकाग्र करना चाहते हैं, किन्तु मन एकाग्र [नहीं होता।] बस उसी का ध्यान आता है, “देखो तो, कैसी सुन्दरी! कैसे वह [मद्य] पी रहा था? कैसे उसके साथ में अभद्र व्यवहार कर रहा था?” [उसका चिन्तन] करते-करते मन को नियन्त्रित (check) नहीं कर सके।
वे घर लौटे, किन्तु मन को वहीं रख दिया। [केवल] शरीर से यहाँ आये। आकर के माता-पिता की सेवा करनी चाहिये। अब सोचने लगे कि उससे कैसे मिलूँ? इसलिये कुछ सामान लिया, जिससे [कि उस शूद्राणी को] प्रसन्न कर सकते हैं। फिर रात में वहाँ पर पहुँच गये। इसी प्रकार प्रतिदिन [उसके पास में जाते और] अपने पिता की बड़ी मुश्किल से जो सम्पत्ति जोड़ी थी, वह सब उसको दे दिया और यहाँ तक कि कुछ दिनों के बाद में अपनी विवाहिता स्त्री, बच्चों को, वृद्ध माता-पिता को, सबको छोड़ करके बस उसके साथ में रह गये। उससे उनको आठ बच्चे पैदा हुए। जो सबसे छोटा बच्चा है, उसका जब जन्म हुआ, तो पूर्वजन्म के या इसी जन्म के संस्कार से उस बच्चे का नाम नारायण रख दिया, क्योंकि पहले वे ब्राह्मण तो थे ही।
हमारे यहाँ पहले ऐसी ही संस्कृति थी। किसी [लड़के का नाम] रामदास, कृष्णदास और लड़कियों का नाम राधादासी, विशाखा, चित्रा, सीता, पार्वती– ऐसे सुन्दर-सुन्दर नाम रखे जाते थे। आजकल नाम सुनकर के कुछ समझ में नहीं आता है। आजकल पाश्चात्य अनुकरणकर डॉली, कुटींक, शुटींक ऐसे सब नाम रखते हैं, जिसका कोई अर्थ ही नहीं होता हैं। अरे! तुम पहले यदि लड़कियों के नाम राधादासी, सीता रख देता या [लड़कों के नाम] रामदास या राम, गोविन्द रख देता, कितने सुन्दर-सुन्दर ये नाम हैं! तो सहज रूप में हमारा [भगवान् का] नाम हो जाता और हमारा कल्याण हो जाता। किन्तु हम ऐसे संस्कार-विहीन हैं, जो हिन्दू हो करके भी हम आजकल ऐसा नहीं करते। बहुत जगह पूछते भी हैं, किन्तु उनपर कोई असर ही नहीं पड़ता है।
आजकल कुछ ‘हरे कृष्ण आन्दोलन (Movement)’ इत्यादि के द्वारा या हम लोगों के प्रचार के द्वारा, महाप्रभु के प्रचार के द्वारा, कुछ-कुछ सुधार हुआ है, किन्तु न जाने कितने दिन तक ये सुधार चलेगा या कुछ दिनों के बाद में ऐसा [ही हो जायेगा], जैसा कि चारों ओर ये सब कलियुग का प्रभाव बढ़ रहा है। धर्म के नाम पर बहुतसी ऐसी चीज़े हो रही हैं, जिनका धर्म से कोई भी सम्बन्ध नहीं है, केवल धन से सम्बन्ध है। ऐसी ऐश्वर्यमय वस्तुएँ देख करके हम भूल जाते हैं। इसलिये आप लोगों से निवेदन है कि अपने बच्चों का नाम भी वैसा ही रखेंगे, जैसा अत्यन्त गर्हित होने पर भी, निम्न होने पर भी [अजामिल ने] बच्चे का नाम ‘नारायण’ रखा। इसका क्या फल हुआ? श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुरजी कहते हैं– “अहो! इसने नाम तो रखा, इसको पता नहीं था। जिस दिन उसने [नारायण] नाम रखा, उसी दिन उसका ‘नामाभास’ हो गया।”
भगवान् के नाम तीन प्रकार के होते हैं– एक नामापराध, एक नामाभास और एक शुद्धनाम। जिनके हृदय में कोई कलुष नहीं है, भगवान् से सम्बन्ध हो गया है, जिनकी दीक्षा हो गई है, दिव्य ज्ञान हुआ है कि मैं ये शरीर नहीं हूँ, मैं शरीर के अन्दर में ‘शरीरी’ हूँ, आत्मा हूँ और वह भगवान् का दास है, [उनके द्वारा किया गया नाम, शुद्धनाम होता है।]
जितने भी विश्व-ब्रह्माण्ड में जीव हैं, वे मानें या न मानें, किन्तु सभी कृष्ण के दास हैं। कोई मानें और न मानें, किन्तु यही (20:34 अस्पष्ट) है। वास्तव में यही यथार्थ वस्तु है। कोई मानें और न मानें हम कृष्ण के दास-दासी हैं। कृष्ण को भूलने से ही हमारी ये अवस्था है।
श्रीशुकदेव गोस्वामी परीक्षित महाराजजी को इसी वस्तु को कह रहे हैं– ‘भयं द्वितीयाभिनिवेशत: स्यादीशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृति:’ [#3] ज्योंहि हम लोग भगवान् को भूल गये, उसी समय भगवान् की माया ने आ करके हमें पकड़ लिया और हमें भगवान् से बहुत दूर फेंक करके हमारे स्वरूप को ढ़क दिया। हम कृष्ण को भी भूल गये, अपने को भी भूल गये और जगत् को भी भूल गये। माया किसको कहते हैं? माया=मा+या, जो नहीं है, उसको वही मानते हैं, इसका नाम है– माया। क्या नहीं है? हमारे ये बाप (पिता) नहीं, भाई नहीं। हमनें अभी उसी को [अपना मान रखा है।] ये हाड़, चाम, रक्त, मांस को ही हमनें मान लिया है। आत्मा तो बहुत दूर की बात रही।
शरीर में से आत्मा निकल गयी। हम सोचते हैं कि हमारे पिताजी मर गये। अब पिताजी का संस्कार करें। अरे, तू किसका संस्कार कर रहा है? माताजी [पिताजी] का? वे तो चले गये दूसरे स्थान पर। उनका न जन्म है, न मरण है, न उनका कोई संस्कार, अब जो हम लोग ये शरीर का संस्कार कर रहे हैं? ये सब बातें समझ में नहीं आती। गीता में कृष्ण ने लाख बार समझाया, किन्तु समझ में नहीं आता।
[श्रीशुकदेव गोस्वामी] कहते हैं कि [अजामिल ने] सब कुछ दे-लेकर अन्त में पुत्र का नाम नारायण रखा। जिस दिन नाम दिया, [तभी उसके सारे पाप नष्ट हो गये।] इसको कहते हैं– [नामाभास।] एक तो नाम है, जब शरीर में इस प्रकार से आत्मभिमान रख करके कि ‘शरीर ही मैं हूँ’ और ‘ये संसार मेरा है’, ‘मैं’ और ‘मेरा’ का भाव रहता है, ‘अहं’ इत्यादि की भावना [रहती है], उस समय जो नाम करते हैं, तो ये ‘नामाभास’ और जब वैष्णव द्रोह करके नाम के प्रति अपराध करते हैं, तो ये ‘नामापराध’ ही होता है।
अब अजामिल ने जो नाम रखा, उसका ‘नामापराध’ नहीं होने के कारण ‘नामाभास’ हुआ। उससे हुआ क्या? उसके भूत, भविष्यत्, वर्तमान के जितने भी पाप थे, वे सब जल करके खत्म हो गये, किन्तु उसको ज्ञात नहीं हुआ। किसको ज्ञात हुआ कि पाप जल करके खत्म हो गये? यहाँ तक कि परमविज्ञ (बुद्धिमान) जो थे, जो धर्म और अधर्म में भेद समझते थे, उनको भी पता नहीं चला। इसलिये जब उसका मरण होने लगा, [तो उसे लेने 3 यमदूत आ गये।]
उसके पहले वह अपने बच्चे को “नारायण इधर आजा”– [कहकर] गोदी में लेता था। “नारायण इधर आ जाओ, पानी पीओ, खाओ”, इस तरह से कहते-कहते उसका पुन: पुन: अभ्यास होने लगा। मरते समय तक उसको ज्ञान नहीं था कि इस नाम का क्या प्रभाव है? जिस समय में उसकी मृत्यु आयी, उस समय वह बच्चा पास ही में खेल रहा था। बस, अन्त समय में बच्चे के मोह के कारण कि इसका क्या होगा? उसने [अपने उस पुत्र के उद्देश्य से] एक बार नारायण नाम कहा। वह भी आधा ही निकला होगा, पूरा नहीं निकला और उसका फल ये हुआ [कि यमदूतों से उसकी रक्षा के लिए 4 विष्णुदूत प्रकट हो गये।]
उस समय तन, मन और वचन से किये गये, जितने पापकर्मों का फल है, उसके लिए तीन यमदूत उसको पकड़ने के लिए आये थे। तीन ही क्यों आये? चार क्यों नहीं आये? इसलिये नहीं आये, क्योंकि व्यक्ति पाप तीन तरह से करता है, या तो मन से या वचन से या तन से करता है। किसी को मारा या मन से कहा कि बड़ा भारी दुष्ट है या [वचन से कहा कि] ‘मारो इसको’, गाली देना। इसलिये ये तीन प्रकार के पाप होते हैं। इसलिये तीन यमदूत आये और उसको पकड़ करके उसकी आत्मा को शरीर से निकालने जा रहे थे। ये बड़े कष्ट से ऊह-आह करने लगा, छटपट करने लगा।
उसी समय में आवाज आई– “रुको, ठहरो! ठहरो! मा भयं, भय मत करो।”
उसी समय देखा, अरे कौन? [यमदूत] श्वास निकालना छोड़ करके उधर देखने लगे। इतने में देखा कि ना-रा-य-ण चार अक्षर ही मानों चार विष्णुदूतों का स्वरूप ले करके वहाँ पर उपस्थित हो गये और आ करके उनको रोक दिया।
[विष्णुदूतों ने कहा–] “क्या कर रहे हो तुम? ठहरो।”
यमदूतों ने कहा – “हम क्या कर रहे हैं? आप कौन हैं?”
[विष्णुदूतों ने] कहा– “हम कौन हैं, इसका तो बाद में विचार होगा। तुम लोग बतलाओ कि इस व्यक्ति को पकड़ करके क्यों ले जा रहे हो?”
यमदूतों ने कहा– “ये महादुष्कर्मी है। इसने जीवन में कोई भी पुण्य काम नहीं किया। ऐसा कोई व्यभिचार नहीं है, जो इसने नहीं किया। इसलिये हम लोग इसको पकड़ करके यम महाराजजी के यहाँ ले जा रहे हैं। वे इसका दण्डविधान करेंगे। ये नरक में जायेगा। नरक में हम लोग इसको कष्ट देंगे।”
[विष्णुदूतों ने] कहा– “धर्म के ठेकेदारों! धर्म और अधर्म किसको कहते हैं, तुमको कुछ पता है? तुम इसको नहीं ले जा सकते। यदि किसी व्यक्ति ने जितना भी पाप किया हो, यहाँ तक कि मातृद्रोही, पितृद्रोही भी हो और न जानकर के ये सब किया हुआ हो और वह अन्त में मरते समय यदि एक बार भी अवश हो करके, विवश हो करके भगवान् का नाम उच्चारण करता है, तो उसके सब पाप दूर हो जाते हैं। अब इसका पाप नहीं है, इसको तुम लोग नहीं ले जा सकते।” इसलिये विष्णुदूतों ने उनको रोक दिया।
उस समय उन्होंने नाम की बहुत महिमा सुनाई। इसके बाद में… मैं संक्षेप में बतला रहा हूँ, क्योंकि पोने नौ बज गया है। तो बहुत संक्षेप में बतला रहा हूँ कि उसके बाद में [विष्णुदूतों ने] उन यमदूतों को मार करके भगा दिया। वे लोग यम महाराजजी के पास में गये और कहने लगे– “प्रभु! हम लोग जानते थे कि आपसे बढ़ करके और कोई जगत् का शासक नहीं है। आप ही धर्म-अधर्म का फल देनेवाले हैं। आपके इस आदेश के रहते हुए भी इन चारों ने आ करके हमें मार करके भगा दिया। वे न जाने कौन थे? उस पापी को लाने नहीं दिया। बतलाइये तो वे कौन हैं? क्या आपसे ऊपरवाला भी कोई है?”
[यमराजजी ने कहा–] “अरे! तुम भूल से कहाँ गये थे? हमारे ऊपर भी कोई है और हमारे जैसे कोटि-कोटि यम, कोटि-कोटि ब्रह्मा, कोटि-कोटि विष्णु और महेश सब उनके नीचे हैं। अनगिनत विश्व-ब्रह्माण्ड हैं, हम तो केवल एक ब्रह्माण्ड में हैं। ऐसे कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड हैं, जहाँ पर लाखों-लाखों मुखवाले ब्रह्मा हैं, लाखों-लाखों मुखवाले यम हैं, शङ्कर इत्यादि हैं। उनकी महिमा अपार है। यदि भूल से भी किसी ने भगवद् नाम कर लिया, यदि वह व्यभिचारी भी है, खबरदार! उसके पास नहीं जाना।” वह श्लोक क्या है?
जिह्वा न वक्ति भगवद्गुणनामधेयं
चेतश्च न स्मरति तच्चरणारविन्दम्।
कृष्णाय नो नमति यच्छिर एकदापि
तानानयध्वमसतोऽकृतविष्णुकृत्यान्॥
-श्रीमद्भागवतम् (6.3.29)
[जिस पापी की जिह्वा एक बार भी कृष्ण-नाम, गुण आदि का कीर्तन नहीं करती, जिसका चित्त एक बार भी उनके श्रीचरणकमलों का स्मरण नहीं करता, जिसका मस्तक एक बार भी उनके चरणों में प्रणत नहीं होता, जो कभी भी वैष्णव-व्रत आदि का अनुष्ठान नहीं करता, उसे ही तुम लोग मेरे पास लाया करो।] GVP
[यमराजजी ने कहा–] “देखो, यदि किसी ने विवश हो करके भी, एक बार भी, भगवान् को नमस्कार किया, यदि एक बार भी भगवान् के नाम का चिन्तन किया, एक बार भी ठाकुरजी के सामने उनको नमस्कार करके, साष्टाङ्ग प्रणाम या जैसे-तैसे भी कर दिया, जिसके गले में तुलसी हो, मरते समय तुलसी और गङ्गा जल का स्पर्श हो, ऐसे लोगों के पास कदापि, उनके चारों सीमाओं में मत जाना। दूर से उनको प्रणाम करके लौट आना। यदि पापी भी है, तो उसको पाप का फल जैसा होगा, वह प्रभु ही देगें। वह उनके अधीन है, हम लोगों के अधीन में नहीं है। हमारे लिए प्रणम्य है, तुम्हारे लिए प्रणम्य है।”
[अजामिल ने विष्णुदूतों और यमदूतों के मध्य हुए वार्तालाप को] सुना और विष्णु के दूत उसको अभय दे करके चले गये। जब वे यम के दूत भाग गये, तब वह उठ करके बैठ गया। उसने सोचा– “अरे! मैंने ये सब कुछ स्वप्न देखा या सत्य देखा।” तब उसने विचार किया– “नहीं तो, ये सब तो मैंने असत्य नहीं देखा। भगवान् के नाम की इतनी महिमा है, मैं तो जानता नहीं था। ये मैंने पहली बार जब बच्चे का नाम नारायण रखा था, उसी समय हमारे पाप दूर हो गये थे। और बाद में जो किया, वह पुनः पुनः मेरा अभ्यासमात्र था। तो नाम की इतनी भारी महिमा है।”
बस, यह विचारकर वह वहाँ से उठ खड़ा हुआ और कहने लगा– “ओह! अब मै संसार में नहीं रुकूँगा, अब तो मैं हरिद्वार जाऊँगा।” बस, उस समय [अजामिल] गङ्गाजी के किनारे हरिद्वार में चला गया। वहाँ वह एक मन्दिर में चला गया और मन्दिर में रह करके वहीं पर झाडू देता। जो कुछ प्रसाद होता, वह प्रसाद लेता। भगवान् की कथा सुनता और बड़ी श्रद्धा के साथ में भगवद् नाम करने लगा। उसके पाप तो पहले ही दूर हो गये थे,नाम करते-करते कुछ दिनों के बाद में अब उसके हृदय में भाव उत्पन्न हुआ। भाव के बाद में...
जैसे हम भजन करते हैं तो श्रद्धा, निष्ठा, रुचि, आसक्ति, इसके बाद में भाव, भाव होने के बाद में स्वरूपसिद्धि, इसके बाद में वस्तुसिद्धि, तब वैकुण्ठ में जाते हैं। तो इस प्रकार से उसको भाव उत्पन्न हुआ। भाव होने का लक्षण क्या है?
नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गद्-रुद्धया गिरा।
पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नामग्रहणे भविष्यति॥
-श्रीशिक्षाष्टकम् (6)
[प्रभो! आपके नाम ग्रहण करते समय मेरे नयन अश्रुधारा से, मेरा मुख गद्गद वाणी से और मेरा शरीर पुलकावलियों से कब व्याप्त होगा?] GVP
शुद्ध नाम होगा, आँखों से आँसुओ की धारा बहेगी, आँखे कभी नहीं सूखेगी। हृदय पुलकित हो जायेगा, द्रवित हो जायेगा इत्यादि, सब [भाव के] लक्षण हैं। कभी भी कोई पाप करने की स्पृहा नहीं होगी। भगवद् नाम छोड़ करके चिन्तन, और कहीं मन जायेगा ही नहीं, एकदम बँध जायेगा। ये सब भाव के लक्षण हैं। जहाँ भगवान् का धाम है, जैसे वृन्दावन धाम, नवद्वीप धाम है, ऐसे धामों में रहने की इच्छा होगी। ये सब भाव के लक्षण हैं। भाव के बाद में फिर उस शरीर को छोड़ करके तब फिर वहाँ जाता है, जहाँ पर की भगवद् धाम है। वहाँ जा करके भगवद्-लीला में प्रवेश करके वस्तुसिद्धि के बाद में प्रेम होता है। तब भगवान् का दर्शन होता है।
जब अन्तिम समय हुआ, फिर भी ये भगवद् नाम करता रहा। इतने में वही चारों दूत आये और कहा– “आप कृपा करके वैकुण्ठ में पधारिये।”
अजामिल ने कहा– “मेरा आप लोगों से एक प्रश्न है। पहली बार मैं आपसे कुछ बोलना चाहता था, प्रणाम करके निवेदन करना चाहता था, किन्तु आप लोग अन्तर्धान हो गये और वही आप लोग इस समय में आ करके मुझे चलने के लिए कह रहे हैं। विमान पर चढ़ा रहे हैं। ऐसा क्यों?”
विष्णुदूतों ने कहा– “पहली बार तुम्हारे पाप तो दूर हो गये थे, किन्तु प्रेम नहीं था। प्रेम के लिए साधन करना पड़ेगा। वैष्णवों के साथ में रहना पड़ेगा। विशेष करके, जो रसिक वैष्णव हैं, उनके साथ में रहने से, तब प्रेम आयेगा। ऐसे ही नहीं होगा। अब तुम्हारे हृदय में प्रेम की उत्पत्ति हो गयी है। इसलिये आप [वैकुण्ठ] चलिये।” इतने में कहते-कहते उनका ये पञ्चभौतिक शरीर और सूक्ष्म शरीर– मन, बुद्धि, अहङ्कार अपने आप झड़ गया और शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म लेते हुए शुद्ध आत्मा निकली और वे वैकुण्ठ को [चले गये।]
इस तरह से नाम की इतनी महिमा है। किन्तु इस नाम से भी ब्रज में नहीं जा सकते। चैतन्य महाप्रभु इस नाम को देने के लिए आये थे। इसलिये कैसे होगा? रसिक वैष्णवों का सङ्ग करने से, राधा-कृष्ण का चिन्तन करने से, स्मरण करने से, अपने चित्त को उनके समान बनाना पड़ेगा। [अपने हृदय में] सखाओं का भाव अथवा वात्सल्य की मूर्ति यशोदा, नन्द का भाव अथवा सखियों का भाव, गोपियों का भाव [लाना होगा], तब हम ब्रज में पहुँच सकते हैं अन्यथा साधारण नाम से [ब्रज में नहीं जा सकते।] इसलिये हम लोग जिस भी अवस्था में हैं, उसी अवस्था से, उसी समय से, जिस रूप में हम लोग हैं, हमें भगवान् का नाम करना चाहिये। समस्त नामों में ये कृष्णनाम और चैतन्य महाप्रभु के द्वारा ‘कलिसन्तरण उपनिषद्’ से लाया नाम [श्रेष्ठ है–]
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
बस इतना ही, आज बहुत रात हो गयी है। दस बज गये हैं। इसलिये मैं अपने वक्तव्य को यहीं पर समाप्त करता हूँ। यदि फिर कभी समय मिलेगा, वृन्दावन की और सुन्दर-सुन्दर, मधुर-मधुर अत्यन्त आकर्षित लीलाएँ हैं, हम लोग [उनको श्रवण करेंगे,] यदि कभी सुयोग मिलेगा। मैं अभी कल रहूँगा, हमारे ये [भक्त लोग] भी रहेंगे, परसों रहेंगे। हम लोग पच्चीस तारीख को यहाँ से जायेंगे। यदि आप लोगों का कोई प्रश्न इत्यादि होगा या कुछ पूछना होगा, मैं कुछ जानता तो नहीं, किन्तु जहाँ तक हो सकता है, मैं आप लोगों की सहायता करने के लिए इस विषय में कुछ बतलाने के लिए भी चेष्टा करूँगा। आज यहीं पर समाप्त करते हैं।
वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः॥
आप लोग अभी बैठिये। एक कीर्तन करके तब जायेंगे।
[श्रील गुरुदेव महामन्त्र कीर्तन करते हुए...]
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समाप्ति-नोट्स (Endnotes)
#1
सिद्धान्ततस्त्वभेदेऽपि श्रीश-कृष्णस्वरूपयोः।
रसेनोत्कृष्यते कृष्णरूपमेषा रसस्थितिः॥
-श्रीभक्तिरसामृतसिन्धु (1.2.32)
यद्यपि नारायण और कृष्ण दोनों के स्वरूप में सिद्धान्ततः कोई भेद नहीं है तथापि ‘शृङ्गार रस’ की दृष्टि से श्रीकृष्ण-स्वरूप नारायण-स्वरूप से श्रेष्ठ है। इस रूप में ही रसतत्त्व की स्थिति है। (GVP)
#2
ज्ञाने प्रयासमुदपास्य नमन्त एव
जीवन्ति सन्मुखरितां भवदीयवार्त्ताम्।
स्थाने स्थिताः श्रुतिगतां तनुवाङ्मनोभि-
र्ये प्रायशोऽजित जितोऽप्यसि तैस्त्रिलोक्याम्॥
-श्रीमद्भागवतम् (10.14.3)
इन्द्रियज ज्ञान की सहायता से इन्द्रियातीत वस्तु की प्राप्ति का नाम आरोहवाद या अश्रौतपन्थ है। परन्तु जो ज्ञान के लिए कुछ प्रयत्न न कर कायमनोवाक्य से साधुमुख से निःसृत आपकी लीला-कथाओं का सत्कारकर जीवन धारण करते हैं, उनके द्वारा कोई कर्म न करनेपर भी आप अजित होकर उनके द्वारा जीत लिए जाते हैं। आप उनके प्रेम के अधीन हो जाते हैं। (GVP)
#3
भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यादीशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः।
तन्माययातो बुध आभजेत् तं भक्त्यैकयेशं गुरुदेवतात्मा॥
-श्रीमद्भागवतम् (11.2.37)
भगवद्-विमुख जीव को मायावशतः अपने स्वरूप की विस्मृति हो जाती है और इस विस्मृति से ही देहाभिमान हो जाता है अर्थात् मैं देवता हूँ, मैं मनुष्य हूँ– इस प्रकारका भ्रम-विपर्यय हो जाता है। इस देह आदि अन्य वस्तुओं में अभिनिवेश (तन्मयता) होने के कारण ही बुढ़ापा, मृत्यु, रोग आदि अनेक भय होते हैं। इसलिये तत्त्वज्ञ व्यक्ति अपने गुरु को ही ईश्वर अर्थात् भगवान् से अभिन्न प्रभु एवं परम-प्रेष्ठ मानकर अनन्य भक्ति के द्वारा उस ईश्वर का (गुरु का) एकान्तिक भजन करें। (GVP)
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