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Sri Advaita Saptami, Reasons for Mahaprabhu's Advent

36:08
#227
Mathura (?)
Lecture
Hindi
Srila Gurudeva 100%
Average

Topics

  • Pastimes of Sri Advaita Acarya with Sri Nityananda prabhu.
  • How Sri Advaita Acarya called for Krsna to appear in this world and how he sent a letter in code language to Sri Caitanya Mahaprabhu to conclude his pastimes.
  • Pastimes of Advaita Acarya with Caitanya Mahaprabhu.
  • Reasons for the appearance of Sri Caitanya Mahaprabhu.

Transcript

श्रीअद्वैत-सप्तमी, श्रीमन्‍महाप्रभु के अवतरण के कारण

[श्रील भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराज ने श्रीकेशवजी गौड़ीय मठ, मथुरा [अज्ञात-तिथि] में श्रीअद्वैत-सप्तमी के दिन यह हरिकथा कही थी।

नोट: इस प्रतिलेखन में निम्‍नलिखित सम्पादकीय योगदान हैं: कुछ स्थानों पर भाषा को थोड़ा सम्‍पादित किया गया है, समाप्ति-नोट्स (endnotes) जोड़े गये हैं और विषय-वस्तु के प्रवाह और बोधगम्यता को सुविधाजनक बनाने के लिये वर्गाकार कोष्ठकों (square brackets) में अतिरिक्त पाठ सम्मिलित किया गया है। इसका शाब्दिक प्रतिलेखन शीघ्र ही उपलब्ध होगा।

यदि आप प्रतिलेखन सेवा में भाग लेने के लिये प्रेरित हैं, तो कृपया https://www.audioseva.com/register पर पञ्‍जीकरण करें।]

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: आज अद्वैतसप्तमी है। आज के दिन अद्वैताचार्य का जगत् में आविर्भाव हुआ था। [भगवान् से] पहले भक्तों का जगत् में आना होता है। पहले भक्त इस जगत् में आते हैं, [एवं भगवान् की लीला के लिये] भूमिका प्रस्तुत करते हैं। उसके बाद में इस जगत् के उपादान कारण अद्वैताचार्य आते हैं। वे उपादानों को सब ठीक-ठाक करते हैं कि प्रकृति ठीक है कि नहीं। उसके बाद में त्रयोदशी के दिन में स्वयं इनके अंशी नित्यानन्‍द प्रभुजी आये और उसके बाद ही में स्वयं प्रभु [श्रीकृष्ण] राधाभाव और कान्‍ति ले करके जगत् में अवतरित हुए। इस प्रकार से महाप्रभुजी की लीला [होती है।]

आप लोग कहियेगा–

वन्दे तं श्रीमदद्वैताचार्यमद्भुतचेष्टितम्।
यस्य प्रसादादज्ञोऽपि तत्स्वरूपं निरूपयेत्॥
-श्रीचैतन्यचरितामृत आदिलीला (6.1)

[जिनकी कृपा से मूर्ख व्यक्ति भी उनके स्वरूप का निरूपण कर सकता है, उन अद्भुत चेष्टायुक्त श्रीमद्-अद्वैताचार्य की मैं वन्दना करता हूँ।] IGVP

मैं अद्भुत चेष्टाविशिष्ट अद्वैताचार्य की वन्दना करता हूँ, जिनकी कृपा से अज्ञ व्यक्ति भी उनके जिस दुरूह तत्त्व का सहज ही निरूपण कर सकता है।

अद्भुत चेष्टा अर्थात् क्या? श्रीनित्यानन्‍द प्रभु को देखने से ही [श्रीअद्वैताचार्य का उनसे] विवाद हो जाता है। वे कहते– “ये कहाँ का अवधूत! आज हमारे घर में आकर और चारों तरफ में प्रसाद फेंक दिया। ज्ञान नहीं, न जाने कौन सी जाति का है? अवधूत ! ये जाति हीन! हम ब्राह्मण श्रेष्ठ! और अन्न इधर-उधर फेंका, छिड़क दिया। सब शरीर में भी डाल दिया।”

तो नित्यानन्‍द प्रभु कहते हैं कि– “अरे अपराधी! महाप्रसाद के प्रति अपराधी! इसको तुम अन्न मानता है और इसको छींटना मानता है। इसमें यह नहीं देख सका कि इससे पृथ्वी भी कल्याणमयी बन गयी और जिन-जिन के शरीर में ये अन्न प्रसाद लगा, उसके स्पर्श से ही एकदम तर गया।” इस प्रकार दोनों में बीच-बीच में झगड़ा होता है। जब स्नान करने जाते हैं तो अवश्य ही झगड़ा होता है।

नित्यानन्‍द प्रभु भी अल्प वयस्क हैं और वह हैं?

भक्त: वृद्ध

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: और उनसे भी अल्प व्यस्क कौन हैं? स्वयं महाप्रभु। महाप्रभुजी उम्र में सबसे छोटे, उसके बाद में [उनसे बड़े] नित्यानन्‍दजी और उसके बाद में ऊपर में कहो– अद्वैताचार्यजी। अद्वैताचार्यजी की आयु सबसे अधिक है। तो ये उनके विचार बड़े दुरूह हैं।

[श्रीअद्वैताचार्यजी ने] महाप्रभुजी के पास में एक पहेली भेजी–

बाउलके कहिह,–लोक हइल बाउल।
बाउलके कहिह,-हाटे ना बिकाय चाउल॥
बाउलके कहिह,–काये नाहिक आउल।
बाउलके कहिह,–इहा कहियाछे बाउल॥
-श्रीचैतन्यचरितामृत अन्‍त्यलीला (19.20-21)

[पागल से कहना–लोग पागल हो गये हैं। पागल से कहना—हाट में अब चावल नहीं बिक रहे हैं। पागल से कहना—पागल का अब कोई कार्य नहीं है। पागल से कहना—यह बात एक पागल ने कही है।] IGVP

‘बाउलके कहिह,–इहा कहियाछे बाउल’– बाउल से बाउल कह रहा है अर्थात् एक पागल दूसरे पागल को कह रहा है। सन्‍देश देने वाला भी पागल है और जिसको सन्‍देश भेज रहे हैं, वह भी पागल है। ‘इहा कहियाछे बाउल’ में बाउल अर्थात् अद्वैताचार्य और ‘बाउलके कहिह’ में बाउल अर्थात् महाप्रभु। ‘हाटे ना बिकाय चाउल’– अब बाजार में चावल की बिक्री नहीं है। उसके बाद में क्या है?

भक्त: बाउलके कहिह,–काये नाहिक आउल।

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: ‘बाउलके कहिह,–काये नाहिक आउल’—अब दुकान की आवश्यकता नहीं है। दुकान उठा लेने की आवश्यकता है, क्योंकि बाजार में चावल बिकता नहीं है। यह तरजा (पहेली) किसी की समझ में नहीं आया। [इसे सुनकर] महाप्रभु भी कुछ उदासीन हो गये। केवल स्वरूप दामोदरजी कुछ समभाव समझे और कोई नहीं समझा। [श्रीअद्वैताचार्य के विचार] ऐसे दुरूह थे।

एक पागल अर्थात् कृष्ण प्रेम का पागल और दूसरा जो कृष्ण के प्रेम से जगत् को पागल बनाने आया है, वह भी पागल और अद्वैताचार्यजी एक पागल– पागलपन का सन्‍देश भेज रहे हैं। बाजार में चावल की आवश्यकता नहीं अर्थात् प्रेम की अब आवश्यकता नहीं है। जिस-जिसको प्रेम देना था, वह काम पूरा हो गया। इसलिये अब दुकान–हाट उठा लिया जाये अर्थात् अपने अवतार को अब संवरण कर दीजिये। किन्‍तु किसी की समझ में नहीं आया, केवल स्वरूप दामोदरजी कुछ [समझे।] इस प्रकार से उनकी अद्भुत चेष्टाएँ [होती थी।]

[श्रीअद्वैताचार्य] गीता का भक्तिपूर्ण अर्थ बखान करते थे और [अन्य] कोई [भक्तिविरुद्ध अर्थ] बखान नहीं करते थे। गीता का भक्तिपूर्ण अर्थ [करते थे।]

[गीता के] ‘विशते तदनन्तरम्’ [#1]–का अद्वैतवादी अर्थ करते हैं कि जीव भगवान् में मिल जाता है। ब्रह्म में मिल करके एक [हो जाता है।] ‘विशते तदनन्तरम्’। [अद्वैतवादी कहते हैं कि जीव] ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ कहते हुए और उससे जो पृथक जीव ज्ञात होता है, और ‘जगत् झूठा है’ का अभ्यास करते-करते, करते-करते और अन्‍त में ‘विशते तदनन्तरम्’ अर्थात् उनमें मिल जाता है।

सबसे पहले श्रीअद्वैताचार्य ने इसकी [भक्तिपरक] व्याख्या की है। ‘सततं कीर्तयन्तो’ [#2] उससे पहले कहा है। और

अनन्याश्चिन्‍तयन्‍तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
-श्रीमद्भगवद्गीता (9.22)

[अन्य कामनारहित तथा मेरी चिन्ता में निरत जो व्यक्तिगण सर्वतोभावेन मेरी उपासना करते हैं, नित्य मुझमें एकनिष्ठ उन व्यक्तियों का योग और क्षेम मैं वहन करता हूँ।] GVP

और ‘मद्भ‍‍क्तिं लभते पराम्’ [#3]- अन्‍त में भक्ति लाभ करता है। कौनसी भक्ति? पराभक्ति। इन वस्तुओं के माध्यम से ‘विशते तदनन्तरम्’ अर्थात् भक्ति में प्रवेश करता है। भगवान् में– ब्रह्म में, ज्योति में ज्योति मिल जाती है, ऐसा नहीं है। ‘विशते’ उनके धाम में प्रवेश करके उनकी सेवा में प्रवेश करता है, इसका यह अर्थ है। किन्‍तु [अद्वैतवादी] लोग उल्टा-पुलटा अर्थ कर देते हैं। इसलिये कहते हैं कि ...

अब इन्‍हीं अद्वैताचार्य ने कुछ दिनों के बाद में शान्‍तिपुर में जा करके ‘विशते तदनन्तरम्’ का यही [अद्वैतवादी] अर्थ बतलाया– “अहम् ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ब्रह्म हूँ और जीव ब्रह्म में मिल जाता है।” तो महाप्रभु [शान्‍तिपुर] गये और ताबड़तोड़ मुक्के से, थप्पड़ से, जैसे बना दाढ़ी नोच-नाचकर और उन्‍हें पीट करके दुरुस्त कर दिया। सीता देवी ने आ करके उनकी रक्षा की। अद्भुत! क्यों? अब मार खा करके बड़े प्रसन्न हो करके नृत्य करने लगे [और कहने लगे–] “यही तो मैं चाहता था। ये मुझे प्रणाम करते थे और गुरु के रूप में मेरी उपासना करते थे।”

अद्वैताचार्यजी श्रीमाधवेन्‍द्रपुरीपाद के शिष्य हैं। तो महाप्रभुजी सोचते थे– “ये मेरे परमगुरुजी के शिष्य हैं। ये मेरे गुरु हैं। इसलिये इनको प्रणाम करना, इनकी भक्ति करना मेरा कर्तव्य है।” इसलिये महाप्रभुजी [उनके साथ में ऐसा व्यवहार] करते थे। और श्रीअद्वैताचार्यजी देखते थे कि “हमारे अंशी के अंशी के अंशी के मूल ये स्वयं महाप्रभुजी हैं। हमारे ये आराध्य हैं।” इसलिये अद्वैताचार्य उनका भजन करना चाहते थे, सेवा करना चाहते थे।

[महाप्रभु श्रीअद्वैताचार्यजी से सेवा ग्रहण नहीं करते थे बल्कि उनकी सेवा करते थे।] उस सेवा से हटाने के लिये ही अद्वैताचार्य ने गीता की निर्विशेषवादी व्याख्या की। तो महाप्रभुजी बिगड़ करके उन्हें मारने लगे। जब मारने लगे तो [श्रीअद्वैताचार्यजी प्रसन्न होकर कहने लगे–] “आज मेरा जीवन सार्थक हो गया। मैं यही चाहता था कि आप मेरी सेवा ग्रहण करें। अब आप बड़े हैं कि मैं बड़ा हूँ। अब कौन [बड़ा] हुआ?” [यह सुनकर] महाप्रभु लज्जित हो गये।

एक बार [श्रीमन् महाप्रभु ने] शचीदेवी को कह दिया कि “तुम्हें प्रेम नहीं देंगे। हमारे भक्त का तुमने निरादर किया है।”

[शचीदेवी ने कहा–] “क्या निरादर किया है?”

[श्रीमन् महाप्रभु ने कहा–] “तुम्हारा वैष्णव-अपराध हो गया है। तुमने कहा कि यह अद्वैत नहीं, यह तो द्वैत है।”

बात तो अच्छी ही थी। बात बुरी क्या थी? द्वैत अच्छा है कि अद्वैत अच्छा है? द्वैत ही तो अच्छा है, क्योंकि उसमें सेव्य-सेवक का भाव है।

[शची देवी ने कहा–] “तू अद्वैत नहीं है, द्वैत है।”

महाप्रभुजी ने कहा– “माताजी का यह कहना है कि यह अद्वैताचार्य भक्ति बखान करके माता से पुत्र को अलग करता है। पिता से पुत्र को अलग कर देता है। भाई से भाई को अलग कर देता है। और यह ऐसा ही कर देता है, जिससे कि संसार से उसका सम्‍बन्‍ध काट देता है।”

मैया का मानो प्राकृत [विचार] है। [किन्‍तु वास्तविकता में] नहीं है। वह तो कृष्ण के प्रति, महाप्रभुजी के प्रति उनका अनुराग है, इसलिये वह कह सकती हैं। इससे बढ़ करके अच्छा क्या होगा? किन्‍तु जो भी कोटि जन्मों से भगवान् को भूले हैं, यदि कोई उन्‍हें संसार के लिये ऐसा उपदेश दे करके [भगवान्] के साथ में सम्बन्‍ध स्थापन करके उनके भजन का उपदेश देता है और संसार की शृंखला को काट देता है, तो इससे बढ़ करके और क्या उपकार हो सकता है?

शचीदेवी ने कहा– “[अद्वैताचार्य ने] विश्वरूप को हमसे अलग कर दिया। ये महाप्रभु को भी शिक्षा दे करके हमसे अलग कर देगा। ये भी कहीं चला जायेगा, संन्‍यासी बन जायेगा। इसलिये अद्वैत अर्थात् ये एक में मिला हुआ संसार नहीं देखना चाहता। ये द्वैत चाहता है।”

महाप्रभुजी ने मैया को कहा– “अरे! हमारे भक्तों को तुम ऐसा कहती हो! तुमको प्रेम नहीं देंगे।” मैया आ करके खड़ी हो गयी। सब लोगों ने कहा– “इनको प्रेम दे दीजिये।” [महाप्रभुजी ने] कहा– “इन्होंने अद्वैताचार्य के चरणों में अपराध किया है।” तो वह चली गयीं और अद्वैताचार्यजी से क्षमा मांगी। वह उनके चरणों में गिर गयीं।

[अद्वैताचार्य ने कहा–] “आप जगत्-जननी हैं। आपका कभी अपराध नहीं हो सकता है।” फिर उन्होंने कहा– “फिर तो ठीक है। यदि कोई कहता है कि अपराध है, तो मैं क्षमा कर देता हूँ।” जैसे किसी ने कहा कि [भक्तों की] चरणों की धूलि से कृष्णचन्‍द्र का बुखार उतर जायेगा तो गोपियों ने कहा कि “ले लो।” ऐसे ही इन्होंने कहा– “यदि हमारे प्रति अपराध है, तो मैं तो लाख मुख से कहूँगा कि अपराध नहीं है, क्षमा कर दिया।” [अद्वैताचार्यजी के क्षमा-प्रार्थना करने के पश्चात्] महाप्रभुजी ने फिर शचीदेवी को प्रेम दिया। ऐसे ही अद्भुत-चेष्टा। और क्या चेष्टा?

कृष्णचन्‍द्रजी गोलोक-वृन्‍दावन में जाने पर, [भौम-] कृष्णलीला समाप्त करने पर सोच रहे हैं– “भाई! हमारी तीन इच्छाएँ पूर्ण नहीं हुई। राधाजी की प्रणय महिमा [कैसी है?], कृष्ण का माधुर्य [कैसा है?] और आस्वादन करने पर उसका [कैसा] सुख है?— ये तीन इच्छाएँ हैं। बिना राधिकाजी के भाव और अङ्गों की कान्‍ति के ये सम्‍भवपर नहीं है। मैंने इसका तो आस्वादन नहीं किया। मैंने वात्सल्यरस का, माधुर्यरस– सभी रसों का आस्वादन किया, किन्‍तु राधाजी को मुझे देखने से कैसा सुख होता है? और हमारे प्रति उनका जो प्रणय है, वह प्रेम कैसा है? ये तो मैं कभी अनुभव नहीं कर सका। ये अनुभव करना है।” इसके लिये सोचा कि मुझे फिर ब्रज में जाना पड़ेगा। मैं जगत् में जा करके अनुभव करूँगा।

उस समय युगधर्म भी उपस्थित था। कलिकाल आ गया। तो कलिकाल की आयु चार लाख बत्तीस हजार वर्ष की है। साधारण रूप में भगवान् का अवतार किसी युग के अन्‍त में ही होता है। जैसे त्रेतायुग के अन्‍त में राम आये। द्वापर के अन्‍त में ही कृष्ण आये। ऐसे युगावतार, युग का जब प्रयोजन होता है, अन्‍तिम चरम अवस्था पर जब उच्छृंखलता बढ़ जाती है– ‘धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे’ [#4] [अर्थात् धर्म की संस्थापना के लिये युग-युग में आविर्भूत होता हूँ।] तब वे आते हैं।

तो इसलिये वे सोच रहे थे कि अभी और देखें। और पाप बढ़ जाये और उच्छृंखलता बढ़ जाये, दैत्य-दानव ये सब कर रहे हैं, कर लें, तो ‘मैं कब अवतरित होऊँ?’ इस पर विचार कर रहे थे। किन्‍तु उन्‍हें [कब] आना था, ये निश्चित करेंगे। कारण क्या? दो– [मुख्य और गौण।] दो अर्थात् चार, [मुख्य-मुख्य, मुख्य-गौण, गौण-मुख्य और गौण-गौण।] जीवों को युगधर्म प्रचार करना अर्थात् नाम का प्रचार। जीवों को प्रेम दान करना। प्रेम आस्वादन एक [मुख्य कारण है] और प्रेमदान एक [गौण कारण है।] तो महाप्रभुजी के [अवतरण के] दो मुख्य कारण और दो गौण कारण हैं।

[महाप्रभुजी के अवतरण का] मुख्य का मुख्यतम कारण राधाजी [के भाव और अङ्गकान्‍ति को लेकर] प्रेम आस्वादन करना और दूसरा गौण [का मुख्य] कारण है–‘अनर्पितचरीं चिरात् करुणयावतीर्णः कलौ’ [#5] अनर्पितचर प्रेम देना। वह प्रेम भी कैसा? उन्नत-उज्ज्वल-रस देना। उन्नत-उज्ज्वल-रस किसको कहते हैं? गोपियों के ‘पारकीय भाव’ का नाम ही उन्नत-उज्ज्‍वल-रस है। इसको देने के लिये [महाप्रभुजी आये।] तो राधाजी का तो यही भाव है, तो इसको देने के लिये आये? नहीं।

उन्नत-उज्ज्‍वल– पारकीय रस भी दो प्रकार का है– एक तो राधाजी का भाव जो [जीवों को] देने योग्य नहीं और दूसरा– पाँच सखियों में से जो दो सखियाँ ‘नित्यसखी’ और ‘प्राणसखी’ हैं– इनका। जो राधाजी की सेवा और उनके आनुगत्य में कृष्ण की सेवा है, यह वस्तु उन्नत-उज्ज्वल है। किन्‍तु इसे दिया जा सकता है। यही जीवमात्र का स्वरूप है। इसलिये इसको देने के लिये, जीवों के स्वरूप को देने के लिये और राधाजी के स्वरूपगत प्रेम का आस्वादन करने के लिये [महाप्रभुजी आये।] और ‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत’ [#6]– ये दूसरा गौण कारण और इसमें युगधर्म का– नाम-संकीर्तन का प्रचार करना, ये गौण में भी मुख्य कारण था। ये चार कारण थे।

कृष्ण विचार कर रहे हैं कि “मुझे कब चलना चाहिये? युगधर्म के लिये तो अन्‍त समय ठीक है। नाम प्रचार करने के लिये प्रारम्‍भ से नाम का प्रचार किया जाये, तो युग का प्रभाव जो है, वह जीवों पर कम रहेगा। उससे उनका कल्याण होगा। और प्रेम कब देना चाहिये? और आस्वादन कब करना चाहिये?” – यही विचार कर रहे हैं। इतने में एक और कारण आ गया।

अद्वैताचार्य ने देखा कि अभी [कलियुग के] प्रथम चरण में ही भक्ति जगत् से लुप्त हो रही है। न जाने पीछे क्या होगा? महाविष्णु के रूप में विचार कर रहे हैं। कहाँ? अवतार के पहले। कहाँ रहते हैं? कारणार्णव [कारणजल में] में शयन करते हैं। वहाँ विरजा में विचार कर रहे हैं, जहाँ पर कि प्रकृति में सात्विक, राजसिक और तामसिक कोई भी [गुण नहीं है,] कुछ नहीं है, साम्यवस्था है– वहाँ पर ये विचार कर रहे हैं कि “प्रभु ना जाने कब आयेंगे?” और इधर ये जगत् के उपादान कारण हैं। जगत् के दो कारण हैं– एक उपादान और एक निमित्त। निमित्त किसको कहते हैं? पण्‍डितजी जरा व्याख्या कीजिये तो?

भक्त (पण्डितजी): जिस प्रकार घट है। घट बनती हैं, उसमें जो ...

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: घट बनती है?

पण्डितजी: जो घट बनते हैं, तो उसमें सबसे पहले जो मुख्य कारण है, उसे उपादान कारण कहते हैं और गौण कारण को निमित्त कारण कहते हैं। मुख्य कारण जिस प्रकार जैसे...

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: उल्टा हो गया...

पण्डितजी: मुख्य कारण– जिस प्रकार माटी है। ये माटी पहले भी था, अभी भी है, बाद में भी रहेगा। माटी न रहने से जो कुम्हार है, वह घट नहीं बना पायेगा।

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: तुम बोलो तो?

भक्त (बङ्गला में): जिस वस्तु द्वारा सम्मिलित होता है, तैयार होता है, वह उपादान कारण है और निमित्त कारण होता है जिस वस्तु को केन्द्र करके जो वस्तु तैयार होती है ...

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: दोनों में मुख्य कौन है?

पण्डितजी: दोनों में उपादान मुख्य है।

भक्त: निमित्त कारण मुख्य है।

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: वह कह रहा है निमित्त मुख्य है और तुम कह रहे हो कि उपादान [मुख्य है।] भाई! तुम बीच में कोई मीमांसा करो तो? तुम्हारी कोई मीमांसा नहीं है? तुम बोलो तो?

अन्य भक्त: निमित्त मुख्य है।

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: वे कह रहे हैं कि निमित्त मुख्य है और पण्‍डितजी कहते हैं कि उपादान [मुख्य है।] इन्होंने सब शास्त्र देखे होंगे।

पण्डितजी: नहीं, नहीं। ये दो प्रकार का है– जगत् की तरफ से देखने से

श्रीपाद माधव महाराज: निमित्त मुख्य कारण है।

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: ये ऊपर से भी देख रहे हैं।

श्रीपाद माधव महाराज: मिट्टी हो, धागा हो, डण्डा हो किन्‍तु निमित्त कारण अर्थात् कुम्हार ना रहे, तो बना नहीं पायेंगे। कुम्हार ही नहीं है।

पण्डितजी: नहीं, नहीं। यदि इस प्रकार से देखे तो उसे मुख्य कारण कहा जायेगा क्योंकि...

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: नहीं नहीं मत कहिये। ये अहंकार है। युक्ति से बोलिये।

भक्त: मिट्टी तो माया (अस्पष्ट 22:03)

पण्डितजी: कुम्हार का क्या प्रयोजन है? कुम्हार की तो आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता तो घट की है। तो जब घट की आवश्यकता है, कुम्हार होने से क्या घट का काम चल जायेगा? नहीं चलेगा। मनुष्य को घट की आवश्यकता है।

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: अञ्जुली से पानी पिला देगा।

पण्डितजी: नहीं। जब अञ्जुली से जब मान लीजिये घट...

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: मान लिया की मिट्टी है। मिट्टी अपने से कोई काम करेगा?

पण्डितजी: नहीं। मिट्टी काम नहीं कर सकता है।

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: और पानी पिलाने का काम घट का है ना?

पण्डितजी: हाँ, घट का है।

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: हाथ में पानी ले करके पी सकते हैं।

पण्डितजी: हाथ में से कितना होगा?

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: [मुख] से पी ले।

पण्डितजी: हाँ?

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: मुख से पी ले।

पण्डितजी: जहाँ पर मुख नहीं है।

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: मुख नहीं है?

पण्डितजी: मतलब मुख काम नहीं कर सकता है। जहाँ मुख काम नहीं कर सकता। इतने दूर से कहाँ पानी पीयेंगे?

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: आज पण्‍डितजी का गड़बड़ हो गया।

पण्डितजी: मान लीजिये कि पानी एक मील दूर में है। तो यहाँ लाने में कितना [अधिक समय लगेगा?] ऐसे पी सकते हैं?

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: यहाँ खाली घट है और गङ्गा से पानी लाना है। घट अपने [आप पानी] लायेगा।

पण्डितजी: वह तो दोनों तरफ से विशेष... समय के अनुसार वह मुख्य और वह गौण है और...

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: नहीं। अब इसे देखो, समझो। निमित्त कारण और उपादान कारण। निमित्त [कारण] विष्णु हैं और उपादान कारण विष्णु हैं। महाविष्णु अर्थात् कारणोदशायी विष्णु स्वरूपतः स्वयं निमित्त कारण हैं और उनके जो अंश हैं– अद्वैताचार्यजी, वह उपादान कारण हैं। अब दोनों में कौन मुख्य हुआ?

पण्डितजी: उधर से देखा जाये तो कारणोदशायी मुख्य है।

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: नहीं, सब प्रकार से।

पण्डितजी: अच्छा

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: सब प्रकार से वैसा ही है। मैंने एक व्यक्ति को कहा– “ये व्यक्ति ठीक नहीं है। ये बड़ा बदमाश, चोर, चोट्टा, लफंगा है। इसको गर्दन पकड़ करके यहाँ से बाहर कर दो। और कह देना यहाँ कभी न आये।” तुम नहीं जानते कि वह कैसा है। मेरे कहने से तुमने उसको बाहर कर दिया। अब उसको बाहर करने का कारण कौन है? मैं कह करके उधर में चला गया।

भक्त: जो कह रहा है।

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: मैं कह करके चला गया। और तुमने क्या किया कि हजार लोगों में वह बैठा हुआ था, सब लोग देख रहे हैं कि ये उसका गला पकड़ करके, गले में हाथ दे करके यहाँ से बाहर कर रहा है। तुम उपादान कारण हुए और मैं निमित्त कारण हुआ। अब उसको बाहर करने का वास्तविक कारण कौन है?

पण्डितजी: वह तो आप ही हैं।

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: हाँ, ऐसे ही समझो।

श्रीपाद माधव महाराज: प्रयोज्य-कर्त्ता, प्रयोजक-कर्त्ता

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: निमित्त कारण चेतन होता है। निमित्त कारण अर्थात् कारणोदशायी भगवान् की ‘इच्छा’ वहाँ पर निमित्त है और महत्-तत्त्व उपादान कारण है। वह प्रकृति है, जिसको प्रसव करती है। निमित्त कारण के रूप में कारणोदशायी विष्णु, स्वयं रूप में उसकी तरफ में इच्छा करते हैं कि जगत् सृष्टि हो और उपादान कारण, जो उपादान प्रकृति है, वह जड़ है, अचेतन है। किन्‍तु निमित्त चेतन है, इच्छा तो है ना? और ये उपकरण महत्-तत्त्व जो है, ये जड़ है। उस जड़ा-प्रकृति में अद्वैताचार्यजी इक्षण करते हैं। इससे ब्रह्माण्ड हो जाता है। अब वे दोनों मिलकर के निमित्त और उपादान जगत् की [सृष्टि करते हैं,] असंख्य कोटि विश्व ब्रह्माण्‍ड होता है। यदि प्रभु की इच्छा ही नहीं होती, तो फिर क्या होता? किसी भी कार्य में जो कारण होता है, मूल इच्छा होती है। इसलिये अद्वैताचार्य उपादान कारण हैं। वह निमित्त कारण के अंश हैं

भक्त: निमित्त कारण ही मुख्य है?

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: इसलिये निमित्त कारण उनकी इच्छा है। इसलिये वह निमित्त प्रधान है। आया समझ में?

भक्त: हाँ

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: इसलिये अद्वैताचार्य महाविष्णु जो हैं, कारणोदशायी विष्णु के ये अंश हैं। इसका विवरण [श्रीचैतन्यचरितामृत में] दिया गया है। कहते हैं–

अद्वैत-आचार्य गोसाञि साक्षात् ईश्वर।
याँहार महिमा नहे जीवेर गोचर॥
-श्रीचैतन्यचरितामृत आदिलीला (6.6)

[श्रीअद्वैताचार्य गोसाईं साक्षात् ईश्वर हैं, इसलिये उनकी महिमा जीवबुद्धि से अगोचर है।] IGVP

महाविष्णु सृष्टि करेन जगदादि कार्य।
ताँर अवतार साक्षात् अद्वैत आचार्य॥
-श्रीचैतन्यचरितामृत आदिलीला (6.7)

[महाविष्णु जगत् की सृष्टि आदि कार्य करते हैं। श्रीअद्वैताचार्य उनके साक्षात् अवतार हैं।] IGVP

महाविष्णु अर्थात्?

भक्त: कारणोदशायी विष्णु

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: कारणोदशायी विष्णु जगत् इत्यादि कार्य की सृष्टि करते हैं। ‘ताँर अवतार साक्षात् अद्वैत आचार्य’- उनके एक अवतार [अद्वैताचार्य हैं। स्पष्ट] हो गया ना? इसलिये महाविष्णु की जो इच्छा है, वही निमित्त कारण है और उनकी इच्छा के अधीन अद्वैताचार्य की जो इच्छा है, ये गौण कारण है। ये (अद्वैताचार्य) भी महाविष्णु हैं, वे भी महाविष्णु हैं, किन्‍तु अद्वैताचार्य महाविष्णु के अंश हैं। यहाँ पर उपादान क्या है? महत्-तत्त्व। महत्-तत्त्व से अहंकार उत्पन्न होता है। अहंकार से पञ्च तन्मात्राएँ रूप, रस, गन्‍ध, शब्द, स्पर्श [उत्पन्न होते हैं।] फिर एकादश इन्‍द्रियाँ और फिर इनके संयोग से स्थूल पञ्‍चभूत [उत्पन्न होते हैं।] स्‍थूल पञ्‍चभूत बाद में होता है। तो ये (एकादश इन्‍द्रियाँ और पञ्‍चभूत) कितना हुआ? 16 हुआ ना? 16 और इसके बाद में इसमें रूप, रस, गन्‍ध, शब्द, स्पर्श पञ्‍चतन्‍मात्राएँ [जोड़ दो,] तो ये 5 और वह 16 [मिलाकर] 21 हो गया और बुद्धि, चित्त और अहंकार जोड़ दिया, 24 हो गया। प्रकृति और पुरुष मिलाकर 26 तत्त्व हो गये। आत्मा और परमात्मा [मिलाकर] ये 28 तत्त्व हैं। जिसमें [अन्‍तिम] दो को छोड़ करके बाकी को सांख्य[वादी] लेते हैं और ‘परमाणुवाले’ लेते हैं। परमाणु अर्थात् नैयायिक। भगवान् को और जीवात्मा को उसमें नहीं लेते हैं।

ये पुरुष सृष्टि-स्थिति करेन मायाय।
अनन्‍त ब्रह्माण्ड सृष्टि करेन लीलाय॥
इच्छाय अनन्‍त मूर्त्ति करेन प्रकाश।
एक एक मूर्त्त्ये करेन ब्रह्माण्डे प्रवेश॥
से पुरुषेर अंश-अद्वैत, नाहि किछु भेद।
शरीर-विशेष ताँर,-नाहिक विच्छेद॥
-श्रीचैतन्यचरितामृत आदिलीला (6.8-10)

[जो पुरुष (महाविष्णु) अपनी बहिरङ्गा शक्ति के द्वारा जगत् की सृष्टि और पालन करते हैं तथा अपनी लीला में असंख्य ब्रह्माण्डों की सृष्टि करते हैं, जो अपनी इच्छा से अपनी अनन्त मूर्तियों को प्रकाश करके उनके द्वारा एक-एक ब्रह्माण्ड में प्रवेश करते हैं, श्रीअद्वैताचार्य उन ‘पुरुष’ के अंश हैं और उनसे अभिन्न हैं। वास्तवमें वे उनसे भिन्न नहीं हैं, वे केवल उनका ही विग्रह-विशेष हैं।] IGVP

उनके ये अंश है अर्थात् महाविष्णु के ये अंश हैं।

सहाय करेन ताँर लइया ‘प्रधान’।
कोटि ब्रह्माण्ड करेन इच्छाय निर्माण॥
-श्रीचैतन्यचरितामृत आदिलीला (6.11)

[श्रीअद्वैताचार्य प्रधान को लेकर सृष्टिकार्य में महाविष्णु की सहायता करते हैं। वे अपनी इच्छा से उपादान रूप में ‘प्रधान’ के द्वारा कोटि ब्रह्माण्डों की रचना में सहायता करते हैं।] IGVP

माया यैछे दुइ अंश–‘निमित्त’, ‘उपादान’।
‘माया’-निमित्त-हेतु, उपादान–‘प्रधान’॥
पुरुष ईश्वर ऐछे द्विमूर्त्ति हइया।
विश्व-सृष्टि करे ‘निमित्त’, ‘उपादान’ लञा॥
-श्रीचैतन्यचरितामृत आदिलीला (6.14-15)

[मायाके जैसे दो अंश– 'निमित्त' और 'उपादान' हैं, जिसमें गुणमयी माया– 'निमित्त' है और 'प्रधान'– उपादान। वैसे ही पुरुष अर्थात् महाविष्णु ‘निमित्त’ और ईश्वर अर्थात् श्रीअद्वैत ‘उपादान’–दो रूप धारण करते हैं।] IGVP

इसीको ही अभी तक हमने बतलाया है। समझे ना? एक उपादान कारण और एक निमित्त कारण। एक उपादान प्रभु और एक निमित्त प्रभु। महाविष्णु कारणोदशायी विष्णु स्वयं निमित्त प्रभु, निमित्त ईश्वर हैं और ये उपादान हैं।

कोई कोई कहते हैं कि प्रकृति से स्वयं सृष्टि होती है। कहा कि कैसे? एक उदाहरण दिया। हरे-हरे तृण हैं और उनको गाय खाती है। अब गाय [के घास] खाने से उसको दूध उतरता है। तो गाय ने घास खाया और अपने आप से दूध उतर गया, इसमें दूसरे लोगों की क्या आवश्यकता है? इसी प्रकार से प्रकृति अपने आप सब कुछ करती है।

तो किसी भोले भाले वैष्णव ने कहा। पहलेवाला जो युक्ति है, वह पण्डितजी ने कहा कि “भाई! घास खाने से तो दूध उतर जाता है।” तो वैष्णव जो थे सरल, भोले भाले, जरा पढ़े-लिखे कम थे, उन्‍होंने कहा– “भाई! बैल भी तो वही घास खाता है। उसको दूध क्यों नहीं उतरता?” पण्डितजी थोड़ा सा सिर ऐसे करके सोचने लगे। ये सब युक्ति याद रखना, नहीं तो तुम लोगों को भोला-भाला समझ करके ठग लेंगे। ये सांख्यवाले कह रहे हैं कि “भाई! वैसा होता है, अपने आप हो जाता है।”

[भोले-भाले वैष्णव ने कहा–] “भाई! बैल को दूध क्यों नहीं उतरता? वह भी तो अधिक घास खाता है।”

भक्त: बैल को बच्चा भी नहीं होता

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: ठीक है। फिर उन्होंने कहा कि “भाई! जैसे उपादान कारण है। घर बना है ना? इसमें ईंट और ये सब दिखाई पड़ता है।” तो वैष्णव ने कहा कि “भाई! यदि ईंट, मसाले, पानी और सीमेंट से ही घर होता, तो एक लाख बोरी सीमेंट यहाँ रखता हूँ और 10 करोड़ ईंट यहाँ रख देता हूँ और अलग से यहाँ पर एक सरोवर पानी भर करके रख देता हूँ और यहाँ पर लकड़ी और पत्थर भी रख देता हूँ। घर बन जायेगा?”

भक्त: नहीं

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: घर बनेगा? उपादान रहने से ही नहीं होगा।

भक्त: ठीक है। निमित्त कारण ही मुख्य है।

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: इसलिये निमित्त मुख्य है, प्रभु की इच्छा है। उन्होंने इच्छा की। कागज और कलम सब कुछ है, किन्‍तु अपने आप से नहीं लिखेगा। इसलिये जड़-उपादान जो प्रकृति है उसके द्वारा कोई भी कार्य नहीं होता, जब तक कि प्रभु की इच्छा ना हो। इसलिये अद्वैताचार्य ही उपादान के मुख्य प्रेरक हैं और निमित्त इसलिये प्रभु को कहा गया, क्योंकि उन्‍हीं की इच्छा से ये इच्छा करते हैं। इसलिये अपने आप जगत् में कोई भी कार्य नहीं होता। इसलिये जगत् का ‘प्रकृतिवाद’ गड़बड़ करेगा।

फिर वे कहते हैं कि एक पङ्गु है प्रकृति और पुरुष। प्रकृति जड़ और पुरुष चेतन है। ये दोनों मिल करके सृष्टि होती है। प्रकृति निष्क्रिय है। उसमें कोई इच्छा नहीं है और पुरुष जो है, वह एकदम निष्क्रिय है, कुछ करता नहीं है। किन्‍तु दोनों जब मिल जाते हैं, तो अपने आप काम हो जाता है। ये जगत् की अपने आप सृष्टि हो जाती है। सृष्टि करनेवाला कोई नहीं है। जैसे आजकल ‘साम्यवाद’ वाले कहते हैं। बङ्गाल को चौपट कर दिया और सभी विश्व को। अब वे लोग धीरे-धीरे सोच रहे हैं और इधर में आ रहे हैं, कुछ आस्तिकता की ओर में। तो कहते हैं कि इसमें भगवान् की क्या आवश्यकता है? झूठ-मूठ को मानने की! वह अपने आप प्रकृति ऐसी है, जिससे कि ये सृष्टि हो जाती है। कहते हैं जैसे पङ्गु अर्थात् लंगड़ा और एक अंधा है– दोनों मिल गये। उनको कहीं जाना था, मथुरा जाना था। तो लंगड़े ने कहा कि “मुझे अपने कंधे पर चढ़ा लो। मैं आँख से देखकर तुमको बाँया, दाहिना, सामने रास्ता बतलाऊँगा और तुम्हारे पैर है, उधर में चलना। बस दोनों पहुँच जायेंगे।” [#7]

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समाप्ति-नोट्स (Endnotes)

#1
भक्त्य‍ा मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥
-श्रीमद्भगवद्गीता (18.55)

मैं जिस प्रकार विभूतिसम्पन्न हूँ और मेरा जो स्वरूप है, उसे वे भक्ति द्वारा ही तत्त्वतः जान सकते हैं। उस प्रेमा-भक्ति के बल से मुझे तत्त्वतः जानकर वे मेरी नित्यलीला में प्रवेश करते हैं। (GVP)

#2
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता:।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्य‍ा नित्ययुक्ता उपासते॥
-श्रीमद्भगवद्गीता (9.14)

वे निरन्तर मेरे नाम-गुण-रूप-लीलादि का कीर्त्तन करते हुए, दृढ़व्रती होकर यत्न करते हुए तथा भक्तिसहित प्रणाम करते हुए नित्ययुक्त भावसे मेरी उपासना करते हैं। (GVP)

#3
ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भ‍‍क्तिं लभते पराम्॥
-श्रीमद्भगवद्गीता (18.54)

ब्रह्म में अवस्थित प्रसन्नचित्त व्यक्ति न तो शोक करते हैं और न ही आकांक्षा करते हैं। वे सभी भूतों में समदर्शी होकर प्रेमलक्षणयुक्त मेरी भक्ति प्राप्त करते हैं। (GVP)

#4
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
-श्रीमद्भगवद्गीता (4.8)

मैं अपने एकान्‍त भक्तों के परित्राण, दुष्टों के विनाश एवं धर्म की संस्थापना के लिये युग-युग में आविर्भूत होता हूँ। (GVP)

#5
अनर्पितचरीं चिरात् करुणयावतीर्णः कलौ
समर्पयितुमुन्नतोज्जवल-रसां स्वभक्तिश्रियम्।
हरिः पुरटसुन्‍दरद्युतिकदम्बसन्‍दीपितः
सदा हृदय-कन्‍दरे स्फुरतु वः शचीनन्‍दनः॥
-(विदग्धमाधव 1.2)

सुवर्ण कान्तिसमूह द्वारा दैदीप्यमान श्रीशचीनन्दन गौरहरि तुम्हारे हृदय में स्फूर्ति लाभ करें। जिस सर्वोत्कृष्ट उज्ज्वलरस का दान जगत् को चिरकाल तक नहीं दिया, उसी स्वभक्ति-सम्पत्ति का दान करने के लिये वे कलियुग में अवतीर्ण हुए हैं। (GVP)

#6
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युथानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
-श्रीमद्भगवद्गीता (4.7)

हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने नित्यसिद्ध देह को प्रकट करता हूँ। (GVP)

#7
श्रीचैतन्यचरितामृत आदिलीला (6.15) के अनुभाष्य में सप्तम सूत्र की व्याख्या द्रष्टव्य है।

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