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Baladeva Purnima: Explaining Baladeva Tattva

13:28
#175
Mathura
Lecture
Hindi
Srila Gurudeva 100%
Good

Topics

  • How Baladeva delivered many demons.
  • If someone associates with persons who are antagonist to the teachings of Srimad Bhagavatam, then he is a demon. One day he will be an offender at the lotus feet of Hari, Guru and Vaisnava.
  • Meaning of Bhagavata; one who is eligible to read Srimad Bhagavatam.
  • How Baladeva killed Romaharsana suta.
  • Why Baladeva appeared at the end of the swing festival.
  • About rasa of Baladeva prabhu; how He attracted Yamuna (Samudra-patni).

Transcript

बलदेव-पूर्णिमा: बलदेव-तत्त्व की व्याख्या

[श्रील भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराज ने श्रीकेशवजी गौड़ीय मठ, मथुरा [अज्ञात-तिथि] में बलदेव-पूर्णिमा के दिन यह हरिकथा कही थी।
नोट: इस प्रतिलेखन में निम्‍नलिखित सम्पादकीय योगदान हैं: कुछ स्थानों पर भाषा को थोड़ा सम्‍पादित किया गया है, समाप्ति-नोट्स (endnotes) जोड़े गये हैं और विषय-वस्तु के प्रवाह और बोधगम्यता को सुविधाजनक बनाने के लिये वर्गाकार कोष्ठकों (square brackets) में अतिरिक्त पाठ सम्मिलित किया गया है। इसका शाब्दिक प्रतिलेखन शीघ्र ही उपलब्ध होगा।

यदि आप प्रतिलेखन सेवा में भाग लेने के लिये प्रेरित हैं, तो कृपया https://www.audioseva.com/register पर पञ्‍जीकरण करें।]

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: बलदेव प्रभु गुरु तत्त्व हैं। हम लोगों ने बतलाया कि कैसे बलदेव प्रभु ने धेनुकासुर को मारकर अज्ञानता को दूर किया, कैसे उन्‍होंने छल-कपट, [स्त्री-लाम्पट्य, लाभ, पूजा और प्रतिष्ठाशा] इत्यादि के प्रतीक प्रलम्बासुर का वध किया तथा किस प्रकार से उन्होंने द्विविद वानर का वध किया। जो बलदेव प्रभु और कृष्ण में भेद देखता है, राम और लक्ष्मण में भेद देखता है, वह कृष्ण की आराधना करने पर भी पाषण्‍डी और धूर्त बन जाता है। यदि बलदेव प्रभु की कृपा नहीं हुई तो [कृष्ण की आराधना व्यर्थ है]। [त्रेतायुग में] द्विविद रामचन्‍द्रजी की [साक्षात्] सेवा करता था, किन्‍तु लक्ष्मण के प्रति विरोध भाव रखता था, [इस अपराध के कारण] वह [द्वापर में] भगवद्‍ [अर्थात् कृष्ण] विरोधी बन गया। इसलिए जो कोई दुष्ट लोगों के सङ्ग (संग) में रहेंगे, जो कि गुरु-सेवा नहीं करते, वैष्णव-सेवा नहीं करते, भगवान् की सेवा नहीं करते, तो ऐसे लोगों का सङ्ग करने से वे भी असुर के रूप में परिणत हो जायेंगे। अन्त में वे गुरु के भी विरोधी बन जाएँगे और भगवान् के भी विरोधी बन जाएँगे। इसलिए बलदेव प्रभु ने द्विविद को मारा। [#1]

बलदेव प्रभु ने बताया कि [ग्रन्‍थ-]भागवत का प्रवक्ता कौन हो सकता है, जो कि स्वयं भक्त-भागवत है।

‘जाह, भागवत पड़ वैष्णवेर स्थाने।
एकान्त आश्रय कर चैतन्य-चरणे’॥
-श्रीचैतन्यचरितामृत अन्त्य (5.131)

[वैष्णवों के निकट जाकर श्रीमद्भागवत पढ़ो तथा एकान्‍तिक भाव से श्रीचैतन्य महाप्रभु के चरणों का आश्रय करो।] IGVP

जो वैष्णवों का एकान्‍त आश्रय नहीं करता, जो स्वयं महाभागवत नहीं है, भागवत नहीं है, वह भागवत पढ़ने का अधिकारी नहीं है। भागवत वह है जो भक्तों का आदर करता है, वैष्णवों का सम्मान करता है। श्रीमद्‍भागवत में जो गुण लिखे गए हैं, वे गुण [भक्त-]भागवत में होने चाहिए। यदि ये गुण उसमें नहीं हैं तो वह वैष्णव नहीं है, [भक्त-]भागवत नहीं है और श्रीमद्‍भागवत पढ़ने का अधिकारी भी नहीं है। इसलिए बलदेव प्रभु ने रोमहर्षण [सूत] का वध कर दिया क्योंकि वह भागवत [पढ़ने एवं पढ़ाने] का अधिकारी नहीं था; वह वैष्णवों को यथायोग्य सम्मान नहीं देता था। इसलिए केवल भागवत पढ़ना ही यथेष्ट नहीं है। यदि कोई भागवत के उपदेशों को ग्रहण करके उसके अनुसार में चले तो वह भागवत पढ़ने का अधिकारी है, उसे उसका कुछ फल मिल सकता है। [भागवत का वक्ता] ‘निवृत्ततर्षैरुपगीयमानाद्‍’ [अर्थात् कृष्णेतर-विषय-तृष्णा से रहित एवं श्रीगुरुमुख से श्रवण करने के उपरान्‍त ही उसका कीर्त्तन करने वाला] होना चाहिये।

बलदेवजी ने देखा कि [रोमहर्षण सूत भागवत का कीर्त्तन करने के] योग्य नहीं है, तो इसलिए उन्‍होंने उसका सिर काट दिया तथा उसके छोटे बच्चे [उग्रश्रवा सूत] के हृदय में भक्ति का सञ्चार (संचार) किया और उसको व्यास-आसन पर बैठा दिया।

इस प्रकार से बलदेवजी के तत्त्व के सम्‍बन्ध में वहाँ पर बहुत विशद रूप में आलोचना हुई है। अब यहाँ पर भी वैष्णव-लोग उनके सम्बन्ध में कुछ-कुछ बतलायेंगे। पहले हमारे कृष्णकान्‍ति ब्रह्मचारीजी ने जो कुछ सुना है, वह अभी उसका सार बतलायेंगे। खड़े हो जाओ।

(कृष्णकान्‍ति ब्रह्मचारी की कथा के बाद)

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: बात ठीक है कि बलदेव प्रभु ने सेवा की। बलदेव प्रभु [कृष्ण-लीला में] जो दस रूप में सेवा करते हैं, रामचन्द्रजी की लीला के समय में [उस प्रकार से दस रूपों में सेवा] नहीं करते हैं, यह सही है या गलत ?

पूज्यपाद माधव महाराज: गलत

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: [बलदेव प्रभु कृष्ण के] समस्त अवतारों की ही दस रूपों में सेवा करते हैं। रामचन्‍द्रजी की लीला में भी वे आसन, वसन, भूषण, पादुका, छत्र, चामर, [शय्या, तकिया, वाहन, गृह] सब रूप में ही सेवा करते है। [#2] इसलिए ऐसा बोलने से नहीं चलेगा [कि बलदेव प्रभु केवल कृष्ण-लीला में ही दस रूपों में सेवा करते हैं, रामचन्द्रजी की लीला में नहीं करते]। [बलदेव स्वरूप में अन्य रूपों से] सेवा करने का वैशिष्ट्य है किन्‍तु दस रूप में सेवा करने के सम्बन्‍ध में कोई वैशिष्ट्य नहीं है।

[रिकॉर्डिंग में अन्‍तराल]
किन्तु थोड़ा सा विषयान्‍तर हो रहा है; तत्त्व तो ठीक बोल रहे हैं। जिस विषय पर हमको आज बोलना है, उस विषय पर हम लोगों को बोलना चाहिए, नहीं तो, अच्छा बोलने से भी विषयान्‍तर हो जाता हैं। विद्वान लोग विषयान्‍तर को सहन नहीं कर पाते हैं। इसलिए गुरु तत्त्व, गुरु की योग्यता, शिष्य की योग्यता– ये सब विषय विशेष होने पर भी, आज का विषय नहीं हैं। यद्यपि गुरु भी बलदेव प्रभु [का प्रकाश] हैं, तब भी उस चीज़ को उतने रूप में ही बोलना चाहिए जितना [मुख्य विषय के साथ में] सम्पर्क रखता हो, बस। अधिक रहने से विषयान्‍तर हो जाता है। समझ में आया? इसलिए विषयान्‍तर न हो। शुभानन्द ब्रह्मचारीजी संक्षेप में बलदेव प्रभु के तत्त्व को बतलायेंगे!

श्रील नारायण गोस्वामी महाराज: झूलन-उत्सव चल रहा था। आज के दिन बहुत ही रसपूर्ण झूलन[-उत्सव का] समापन हुआ। गुरुजी बतलाते थे कि कैसे ब्रज की गोपियाँ कृष्ण के साथ में झूला झूलती हैं और एक महीने का पता ही नहीं चलता कि कैसे बीत गया। पूर्णिमा के दिन में बलदेवजी ने देखा कि आज तो झूला समाप्त हो जाएगा, इसलिए ब्रजवासियों के आनन्द को पुनः प्रकट करने के लिए बलदेव प्रभुजी आज के दिन में प्रकट हुए। आज झूलन उत्सव समाप्त हुआ, किन्तु ब्रजवासियों की उद्दीपना को पुनः बढ़ाने के लिए बलदेव प्रभुजी आज के दिन आविर्भूत हुए। [बलदेव प्रभुजीने विचार किया] कि मेरे जन्म के उपलक्ष में जो आनन्द होगा, उसमें सब ब्रजवासी लोग भीग जायेंगे।

देखा जाता है कि बलदेव प्रभुजी होली इत्यादि लीलाओं में भी कृष्ण के साथ रहते हैं। कृष्ण रास करते हैं। बलदेवजी भी रास करते हैं, ये दिखलाने के लिए कि उनको केवल [इतने तक ही] मत समझो कि ये केवल संकर्षण-राम ही हैं। [वास्तव में बलदेव प्रभु कृष्ण के] वैभव प्रकाश हैं और शक्तिमान तत्त्व हैं। इसको दिखलाने के लिए वे रास करते हैं। [तात्पर्य यह है कि कृष्ण के अतिरिक्त केवल बलदेव प्रभु ही रास करते हैं, अन्य अवतारों के लिए रासलीला सम्भवपर नहीं है।] कोई-कोई बलदेव प्रभु की रासलीला का विरोध करते हैं, किन्तु इसका विरोध करने की कोई आवश्यकता नहीं है। पहले ही बतलाया कि कृष्ण और बलदेव प्रभु में कोई भेद नहीं है। हम जैसा समझते हैं कि जैसे कृष्ण ने सब गोपियों के साथ में रास किया, वैसे ही बलदेव प्रभु ने भी सब गोपियों के साथ में रास किया किन्‍तु, ऐसा नहीं है। बलदेव प्रभु की रासलीला की जो गोपियाँ थीं, वे उनकी अपनी प्रियाएँ थीं और कृष्ण की रासलीला में जो गोपियाँ थीं, वे उनकी अपनी प्रियाएँ थीं। कृष्ण की प्रियाओं के साथ में बलदेव प्रभुजी रास नहीं करेंगे और यदि वे कृष्ण की गोपियों के साथ में रास करते भी हैं, तो इसमें कोई दोष नहीं है। क्यों दोष नहीं है? जब देवताओं का ही किसी भी अप्सरा के साथ में मिलने पर कोई दोष नहीं होता, तो बलदेव प्रभु का दोष कैसे सम्भवपर है? देवताओं का स्थूल शरीर नहीं है, सूक्ष्म शरीर है। [पञ्च तत्त्वों] 'क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर' में से देवताओं का शरीर वायु का है। जैसा कि हम सोचते हैं कि उर्वशी इत्यादि [अप्सराओं] के साथ में इन्‍द्र का या अन्य देवताओं का मिलना भी इस भूलोक के स्त्री-पुरुष के मिलन की भाँति ही घृणित है, किन्‍तु देवलोक में वैसा [मिलन] नहीं होता है, क्योंकि उनका शरीर वायु का होता है। वहाँ पर यह घृणित नहीं है और जिनका वैकुण्ठगत (चिन्मय) शरीर है, उनमें भोग नाम की कोई चीज़ नहीं है, इस चीज़ को समझो। [तात्पर्य यह है कि जब देवलोक में जड़ शरीर एवं भोगमय बुद्धि होने पर भी मिलन में दोष नहीं है तो गोलोक वृन्दावन में चिन्‍मय शरीर एवं भोगरहित बुद्धि होने पर मिलन में दोष कैसे सम्भवपर है?] [#3]

इसलिए बलदेव प्रभु जो रास कर रहे हैं, ये गोपियों को आनन्दित करने के लिए कर रहे हैं, कृष्ण को भुलाने के लिए [अर्थात् गोपियों की विरह-व्याकुलता को दूर करने के लिए कर रहे हैं]। जैसा हम उनके रास के विषय में इस जगत् के [स्त्री-पुरुष मिलन की भाँति] घृणित सोचते हैं, वहाँ पर वे सब चीज़े नहीं हैं। किन्तु सफाई के लिए वैष्णवलोग ऐसा कह देते हैं कि बलदेव प्रभु की गोपियाँ अलग थी और कृष्ण की गोपियाँ अलग थी। किसलिए? जो मूर्ख लोग हैं, सिद्धान्‍त को नहीं जानते है, उन लोगों के लिए ऐसा कहा गया है क्योंकि वे इस चीज़ को नहीं समझेंगे। इसलिए समझाने के लिए ऐसा कहा गया है। वहाँ पर रास में ऐसी कोई चीज़ ही नहीं हैं, जो गन्दी हों। अप्राकृत रस से अप्राकृत शरीर में जो आनन्द है, वह रास है । जैसे इस जड़जगत् में स्त्री-पुरुष भोग की कामना से मिलते हैं, हम लोग उसके अनुरूप कल्पना कर लेते हैं कि वैसे ही [चिन्मय जगत् में भी भोगमय बुद्धि से] वे लोग मिलते हैं [किन्‍तु] वहाँ पर ऐसा शरीर ही नहीं है, ऐसे भोग की कामना ही नहीं है, वहाँ पर सब कुछ रस स्वरूप है। इसलिए, जिस प्रकार बालक अपनी परछाई के साथ में क्रीड़ा करता है तो इसमें कोई दोष की बात नहीं है, उसी प्रकार से कृष्ण या बलदेव जी अपनी योगमाया के द्वारा रास करते हैं, इसमें कोई भी दोष नहीं हैं। लोग समझते नहीं हैं। इन चीजों को समझना चाहिए।

बलदेवजी ने रास किया और यमुनाजी को बुलाया। ऊपर से लगता है कि यमुनाजी नहीं आईं। क्यों नहीं आईं? ऐसा दिखाई देता है कि बलदेव प्रभुजी ने हल से उनको खींच लिया। इन चीज़ों को तत्त्वतः समझने के लिए जानना होगा कि विशाखाजी ब्रज में यमुना है, वह कृष्णप्रिया है। स्थूलतः बलदेवजी का विशाखाजी से कोई सम्पर्क नहीं हैं। इन विशाखाजी का एक वैभव प्रकाश द्वारका में कालिन्दी के रूप में है। कालिन्दी के भी दो रूप हैं, एक समुद्र की पत्नी और दूसरा विशाखाजी का वैभव प्रकाश। जो समुद्र की पत्नी हैं, वह [यमुना के माध्यम से] समुद्र की तरफ में जा रही हैं। बलदेव प्रभुजी ने उनको बुलाया, वे नहीं आई तो उनको हल से खींच लिया। बलदेवजी का ये अधिकार है। जीवमात्र ही [बलदेव प्रभु के] भोग्य हैं। यदि जाह्नवा समुद्र में जा रही हैं और महाप्रभु के चरणों में लिपट गईं, तो इसमें क्या दोष है? चैतन्य महाप्रभु सभी के भोक्ता हैं। इसी प्रकार से बलदेव प्रभु भी शक्तिमान तत्त्व हैं, वह शक्ति तत्त्व नहीं है। वे कृष्ण ही हैं किन्तु कृष्ण की सेवा [की परिपाटी] को प्रकाशित करने के लिए वे [इस स्वरूप में] आए हैं। इसलिए बलदेव प्रभु ने समुद्र की तरफ में जा रही [समुद्र पत्नी कालिन्‍दी] को खींच लिया तो इसमें कोई दोष नहीं है। कालिन्दी बलदेव और कृष्ण के मनोभीष्ट [को पूर्ण] न करें, ये कभी सम्भवपर नहीं हैं। इसलिए इन लीलाओं के गूढ़ रहस्य को समझने की चेष्टा करनी चाहिए। पहले तो रास कोई बुरी चीज़ नहीं है और दूसरा बलदेव प्रभु ने ये दिखलाया कि जो विपथगामी हैं, उनको वे अपने हल से खींच लेंगे। इसी प्रकार से जीवों पर वे दया करते हैं। इसलिए उन कालिन्दीजी को जो समुद्र की तरफ में जा रही हैं, समुद्र को ही अपना पति मान रही हैं, [बलदेवप्रभु ने] उनको ये भाव दिखलाने के लिए कि 'अरे! पति तो मैं हूँ, कृष्ण तुम्हारे पति हैं', उनको खींच लिया और इसमें उनका दोष नहीं हैं।

[बलदेव प्रभु] कृष्ण को उलाहना देते हैं कि 'तुम ब्रज में नहीं जाते, तुम्हारे मन में [कुछ और] है और बाहर से [कुछ और ही दिखलाते] हो। ऊपर से ब्रजवासियों के प्रति प्रेम दिखलाते हो किन्तु तुम्हारा प्रेम ठग जैसा है। तुम बार-बार ब्रज में जाने के लिए कहते हो किन्तु जाते नहीं हो, इसके सम्बन्ध में शुभानन्दजी ने आपको ये सब बतलाया। इस प्रकार से बलदेवजी के बहुत से वैशिष्ट्य हैं। अभी सुबल सखा ब्रह्मचारी जी संक्षेप में बतलायेंगे।

मैंने आज थोड़ी सी कथा कही क्योंकि दिल्ली वाले साढ़े सात बजे जायेंगे, उन्हीं के लिए मैं आकर के बैठा, नहीं तो आज मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं था। इसलिए आप दिल्ली वाले लोग जो जाना चाहते हैं, वे अब आनन्द के साथ में जा सकते हैं।

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समाप्ति-नोट्स (Endnotes)

#1
नरकस्य सखा कश्चिद्‍ द्विविदो नाम वानर:।
सुग्रीव सचिव: सोऽथ भ्राता मैन्‍दस्य वीर्यवान्॥
-श्रीमद्भागवतम (10.67.2)

श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा: द्विविद नाम का एक वानर था जो नरकासुर का मित्र था। मैंदा का भाई, यह शक्तिशाली द्विविद, राजा सुग्रीव द्वारा प्रशिक्षित था। (BBT)

श्रील जीव गोस्वामी द्विविद वानर के बारे में कुछ रोचक तथ्य बताते हैं। हालाँकि द्विविद भगवान् रामचन्‍द्र के सहयोगी थे, लेकिन बाद में वे राक्षस नरक के साथ बुरी संगति के कारण भ्रष्ट हो गए, जैसा कि यहाँ बताया गया है, ‘नरकस्य सखा’ । यह बुरी संगति द्विविद द्वारा किए गए अपराध की प्रतिक्रिया थी, जब उन्होंने अपनी ताकत पर गर्व करते हुए भगवान रामचन्‍द्र के भाई लक्ष्मण और अन्य लोगों का अपमान किया था। जो लोग भगवान् रामचन्‍द्र की पूजा करते हैं, वे कभी-कभी मैंदा और द्विविद को सम्‍बोधित करते हुए मन्‍त्रोंं का जप करते हैं, जो भगवान् के सहायक देवता हैं। श्रील जीव गोस्वामी के अनुसार, इस श्लोक में वर्णित मैंदा और द्विविद इन सहायक देवताओं की शक्ति का विस्तार है, जो भगवान् रामचन्‍द्र के वैकुण्‍ठ क्षेत्र के निवासी हैं।
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर श्रील जीव गोस्वामी के इस विचार से सहमत हैं श्रीलक्ष्मण का अपमान करने के दण्‍ड स्वरूप बुरी संगति के कारण द्विविद का विनाश हुआ। हालाँकि, श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं कि यहाँ वर्णित मैंदा और द्विविद वास्तव में भगवान् रामचन्द्र की पूजा के दौरान सहायक देवताओं के रूप में सम्‍बोधित शाश्वत मुक्त भक्त हैं। वे कहते हैं कि भगवान् ने उनके पतन की व्यवस्था इसलिए कि ताकि महान व्यक्तित्वों को अपमानित करने से होने वाली बुरी संगति की बुराई को दर्शाया जा सके। इस प्रकार श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती द्विविद और मैंदा के पतन की तुलना जय और विजय से करते हैं।
Reference: https://vedabase.io/en/library/sb/10/67/2/

#2
चिद्‍राज्य में स्वयं शुद्धसत्त्व का मूलकारण विषय-विग्रह होते हुए भी दास अभिमान से श्रीशेष-संकर्षण (श्रीबलदेव प्रभु) द्वारा अपने प्रभु का सेवन‌–
मूर्त्तिभेदे आपने हयेन प्रभु-दास।
से-सब लक्षण अवतारेइ प्रकाश॥
सखा, भाइ, व्यजन, शयन, आवाहन।
गृह, छत्र, वस्त्र, यत भूषण, आसन॥
आपने सकल-रूपे सेवेन आपने।
यारे अनुग्रह करेन, पाय सेइ जने॥
-श्रीचैतन्यभागवत आदि-खण्‍ड (1.43-45)

श्रीनित्यानन्‍द प्रभु (श्रीबलदेव प्रभु) मूर्त्ति भेद से कहीं प्रभु कहीं दास होते हैं, उनके वे समस्त लक्षण अवतार के समय प्रकाशित होते हैं। श्रीबलदेव सखा, भाई, चामर, शय्या, वाहन, गृह, छत्र, वस्त्र, आभूषण और आसन, इन दस रूपों से स्वयं अपने प्रभु की सेवा करते हैं। जिस पर वे कृपा करते हैं, वही जन इस तत्त्व को समझ सकता है।

#3
श्रीबलदेव प्रभु द्वारा रास-लीला करने के सम्‍बन्‍ध में श्रीचैतन्यभागवत आदि-खण्‍ड (1.22-31) और श्रील भक्तिसिद्धान्‍त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद की टीका देखें।

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